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एकादश अध्याय
किसी भी वस्तु का नैसर्गिक रूप' भी होता है। इसलिए इसका प्रयोग 'परम तत्व' के लिए भी होने लगा और मध्यकाल में इसको काफी प्रापकना मिली। "दार्गनिक दृष्टि से जहाँ यह 'ब्रह्म' की भांति एकमात्र सत्ता के रूप में स्वीकृत हुअा, वहाँ विशुद्ध चित्त वाले साधकों के लिए यही मानव जीवन के चरम लक्ष्य निर्वाण' का भी बोधक मान लिया गया है"।'
सहज शब्द किस धर्म साधना में प्रथम बार प्रयुक्त हुप्रा. इसका निर्णय करना कठिन है, लेकिन इतना निश्चित है कि बज्रयान और मन के जन्म के पूर्व यह शब्द प्रचलित हो चुका था। डा० धर्मवीर भारती ने लिखा है कि सहज का प्रयोग स्वाभाविक वत्ति के रूप में ४०० ई० से पहले ही होने लगा था। उनको इस बात की भी पूरी सम्भावना है कि बौद्ध तथा शैव दोनों प्रकार की पद्धतियों ने इस शब्द को किसी तीसरी परम्परा से ग्रहण किया। डा. गोविन्द त्रिगुगायत ने इस शब्द का और प्राचीन इतिहास खोजा है। उनका विश्वास है कि 'वेदों में वर्णित निवारताय और निव्युतीय महजवादी हो थे । अथर्ववेद में वर्णित ब्रात्य भो सहज धर्म के अनुयायी थे। ये महनवादी अधिकतर पुरुषवादी होते थे और मनुष्य को हो सबसे अधिक महत्व देते थे। डा. त्रिगुणायत का यह मत सवमान्य भने हा न हो, किन्तु उपर्युक कथनों से 'सहज' के प्रयोग को प्राचीनता का आभास अवश्य मिल जाता है।
मध्यकाल में सहज का काफी प्रचार हुप्रा और बौद्ध धर्म में इसी आधार पर 'सहजयान' नामक सम्प्रदाय का विकास हुआ और उस में यह अनेक अर्यों में प्रयुक्त हआ। नाथ सिद्धों, जैन मुनियों और हिन्दी के सन्त कवियों ने भी इस शब्द को अपनाया। यही नहीं, बौद्ध सहजिया सम्प्रदाय के समान ही 'वैष्णव सहजिया' सम्प्रदाय भी बन गया और जिस प्रकार बौद्ध सहजिया लोगों ने 'प्रज्ञा' और 'आय' के युगनद्ध भाव को कल्पना की थी, वैने हा इन लोगों ने राधा-कृष्ण की नित्य प्रेम लाला को वही रूप देने की चेष्टा की।
जैसा कि हम अभी कह आये हैं यह शब्द प्रत्येक साधना मार्ग में आने के साथ ही साथ नए अर्थ को भी ग्रहण करता गया। सिद्धों ने तो अपनी साधना से सम्बन्धित सभी वस्तुपों का नाम ही सहज से जोड़ दिया। इस प्रकार 'सहज' शब्द सहज तत्व, सहज ज्ञान, सहज स्वरूप, सहज सुख, सहज समाधि, सहज काया, सहज पथ, यहाँ तक कि सहज सम्वर और सहज सुन्दरी आदि के लिए भी प्रयुक्त होने लगा। यहाँ तक कि इसके विपय में यह भी कहा जाने लगा कि 'सहज की न तो कोई व्याख्या की जा सकती है और न इसे शब्दों द्वारा हो व्यक्त किया जा सकता है। यह स्वसंवेद्य केवल अपने
१. परशुगम चतुर्वेदी-मध्यकालीन प्रेम साधना, पृ० ७६ । २. सिद्ध साहित्य, पृ०३६८। ३. कबीर की विचारधारा, पृ० ४०४ । ४. देखिए-दाक्टर धर्मवीर भारती-सिद्ध साहित्य, पृ० १७६ |