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दशम अध्याय
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ऐसी विषम स्थिति में पिया बिना विरहिणी जीवित भी कैसे रहेगी? जीवन का कोई प्राधार भी तो चाहिए। यहां तो न दिन को भूख है न गत को सूख । आत्मा जल विहीन मीन के समान तड़प रही हैं।' हाय कबीर के वे दिवस कब आवेंगे? जब उनका जीवन सफल होगा, जब शरीर धारण करने का फल प्राप्त होगा, जव प्रिय के अंग से अंग लगाकर : 'डागिन का अवसर मिलेगा, जब उनके तन मन प्राण-प्रियतम से एकरूप हो जाएंगे। न जाने वह दिवस कब आएगा? और सौभाग्य से जब वह दिवम आ गया तो कबीर नेत्रों की कोठरी में पुतली की पलंग बिछाकर पलकों को चिक डालकर प्रिय को रिझाने में पूरी शक्ति लगा देते हैं। अब उनका प्रियतम उनसे कदापि दुर नहीं जा सकता। कबीर उसे जाने ही नहीं देंगे, क्योंकि अनन्त वियोग के पश्चात् बड़े भाग्य से कबीर ने घर बैठे ही उनको प्राप्त किया है। अब तो प्रिय को प्रेम प्रीति में ही उलझा रक्खेंगे और उसके चरणों से लग जायेंगे।
सन्त आनन्दघन कबीर से पूर्णरूप से प्रभावित हैं। वे भी इसी ढंग से आत्मा परमात्मा के संवन्ध का वर्णन करते हैं। उनकी आत्मा भी कभी प्रियतम से मान करती है (पद १८), कभी उसकी प्रतीक्षा करती है ( पद १६), कभी मिलन की आतुरता से व्यग्र हो उठती है ( पद ३३), कभी अपनी विरहव्यथा
१. कैसे जीवैगी बिरहिनी पिया बिन, कीजै कौन उगय । दिवस न भूख रेन नहिं सुख है, जैसे करि युग जाय ।। १६॥
(कबीर, पृ० ३३४) २. वै दिन कब आयेंगे भाई ।।
जा कारनि हम देह परी है।
मिलि बो अंग लगाई ।। ३. नैनों की करि कोठरी, पुतरी पलंग बिछाय । पलकों की चिक डारि के, पिया को लिया रिझाय ।।
(कबीर, पृ० ३३०) ४. अब तोहिं जान न दैहूँ राम पियारे ।
ज्यूँ भावै त्यूँ होहु हमारे ।। बहुत दिनन के बिठुरे हरि पाए। भाग बड़े घर बैठे आए। चरननि लागि करौं बरियाई । प्रेम प्रीति राखौं उरझाई ॥ इत मन मन्दिर रहौ नित चोपै । कहै कबीर परहु मति घोपे ॥ २८१ ।।
(कबीर, पृ० ३३२)