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अपभ्रंश और हिन्दी में जन-रहस्यवाद
स्वरूप विश्वसत्ता के साक्षात्कार का आनन्द इसी कारण अनायास लौकिक दाम्पत्य प्रेम के रूपकों में प्रकट हो जाता है।'' कबीरदास रामदेव के संग अपना व्याह रचाते हैं, तन, मन से श्रृङ्गार करते हैं, सखियाँ मंगल गीत गाती हैं, तेंतीसो कोटि देवता और अठासी सहस्र मुनि बराती बन कर आते हैं। ऐसे प्रियतम को प्राप्त करके कवीर अहर्निश उन्हीं में अपने को लीन कर देना चाहते हैं। प्रिय का क्षण मात्र का वियोग कबीर को सहन नहीं। लेकिन वह प्रियतम सदैव कबीर के समक्ष रहता भी कहाँ है ? ऐसा सौभाग्य तो किसी का ही होता है। अतएव कबीर उसे उपालम्भ देते हैं, अपनी विरह वेदना का निवेदन करते हैं। बालम के बिना कबीर की आत्मा तड़प रही है। दिन को चैन नहीं, रात को नींद नहीं। सेज सूनी है, तड़पते ही रात बीत जाती है, आँखें थक गई हैं, मार्ग भी नहीं दिखाई पड़ता। फिर भी बेदर्दी साँई सुध नहीं लेता मार्ग देखते देखते आँखों में भी झाँई पड़ गई, नाम पुकारते पुकारते जिहा में छाला पड़ गया है, फिर भी निष्ठुर पसीजता नहीं। उसको पत्र भी लिखा जाय तो कैसे ? पत्र तो उसको लिखा जाता है, जो विदेश में हो, लेकिन वह तो तन में मन में और नेत्रों में समा गया है, उसको सन्देश कैसे दिया जाय ?' यदि कहीं सन्देश भेजना सम्भव होता, तब तो कबीर इस शरीर को ही जला कर स्याही बनाते और हड्डियों की लेखनी से पत्र लिख लिख कर भेजते । अब
१. पुरुषोत्तम लाल श्रीवास्तव-कबीर साहित्य का अध्ययन, पृ० ३७२।
तलफै बिन बालम मोर जिया । दिन नहिं चैन रात नहिं निंदिया,
तलफ तलफ के भोर किया। तन मन मोर रहंट अस डोले,
सून सेज पर जनम छिया ।। नैन थकित भए पन्थ न सूझै,
सांई बेदरदी सुध न लिया। कहत कबीर सुनो भाई साधो, __ हरो पीर दुख जोर किया ।। १७३ ।।
(कबीर, पृ० ३२६) ३. अंखियाँ तो झाँई परी, पन्थ निहारि निहारि। ___जीहड़िया छाला पड्या, नाम पुकारि पुकारि ।। १ ।।
(कबीर, पृ० ३३१) ४. प्रीतम को पतिया लिखू , जो कहुँ होय विदेस । ___तन में मन में नैन में, ताको कहा संदेस |॥ २ ॥
(कबीर, पृ० ३३०) ५. यहु तन जालौं मसि करौं, लिखौं राम का नाउं । लेखणिं करूं करंक की, लिखि लिखि राम पठाउं ।। ३ ।।
(कबीर, पृ० ३४१)