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दशम अध्याय
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की दशा को प्राप्त हो जाता है तो किसी अन्य समाधि की नहीं रह जाती :
'जिमि लो विज्जिइ पाणियहं तिम जइ चित्तु विलिज्ज | समरसि हूवइ जीवडा काह समाहि करिज ॥ १७६ ॥ कबीरदास ने भी 'सामरस्य' का वर्णन करने हुए काही दृष्टान्त दिया है, हाँ 'चित्त' के स्थान पर 'मन' के लीन होने की बात की है :
मन लागा उनमन सौं, उनमन मनहि विलग |
लूंग बिलगा पांणयां, पांणीं लूंग बिलग | १६ ||
अर्थात् जब मन परमतत्व से मिल गया और परमतत्व मन से, दोनों जलनमकवत् समरस हो गए तो द्वैत भाव रहा हो कहाँ ?
कबीर और सन्त आनन्दघन:
१७ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एक प्रसिद्ध मर्मी जैन सन्त आनन्दघन हो गए हैं। इनकी विचार पद्धति और रचना शैली को देख कर सहज ही कहा जा सकता है कि ये कबीर की श्रेणी के हैं। आनन्दघन के अनेक पदों और साखियों को देखकर कबीर के पद और साखी होने का भ्रम हो जाता हैनहीं, भ्रम हो गया है और 'आनन्दघन वहोत्तरी' में कई ऐसे पद संग्रहीत कर दिए गए हैं, जो वस्तुतः कबीर के हैं । सन्त आनन्दघन पूर्ण कबीरवादी हैं। कबीर के हो समान आपने आत्मा-परमात्मा की प्रणयानुभूति की चर्चा की है, आत्मा की वियोग दशा का वर्णन किया है, माया की शक्ति का चित्रण किया है, उलटवासियाँ और साखो लिखा है, हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य की बात कही है और कबीर के ही समान ' अवधू' या 'साधू' को सम्बोधित कर उपदेश दिया है। सम्भवतः कबीर का कोई शिष्य या अनुयायी भी साधना के उस उच्च सोपान को नहीं पहुंच सका है और न किसी का काव्य ही उतने उच्च कोटि का बन सका है, जिस स्थान को सन्त आनन्दघन पहुंचे हैं या जैसा काव्य इनका है। यदि इनके नाम से 'जैन' विशेषण हटा दिया जाय अथवा इनकी रचनाओं को कबीर की बानी के साथ रख दिया जाय तो सन्त आनन्दघन सोधे हिन्दी सन्त कवियों की परम्परा में आ जाएँगे ।
आत्मा-परमात्मा प्रिय प्रेमी के रूप में :
हवादी कवियों ने प्रायः आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध का वर्णन प्रियप्रेमी के रूप में किया है और इससे बढ़कर अन्य सुन्दर सम्बन्ध की कल्पना भी तो नहीं हो सकती । एक विद्वान् ने ठीक ही लिखा है कि 'लोक में आनन्द शक्ति का सबसे अधिक स्फुरण दाम्पत्य संयोग में होता है, ऐसे संयोग में जिनमें दो की पृथक् सत्ता कुछ समय के लिए एक ही अनुभूति में विलीन हो जाती है। आनन्द