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अपभ्रंश और हिन्दी में जन-रहस्यवाद
का निवेदन करती है (पद ४१, ४७), कभी प्रिय की निष्ठुरता पर उपालम्भ देती है (पद ३२) और कभी प्रिय मिलन से आनन्दित हो अपने 'सुहाग' (सौभाग्य) पर गर्व करतो है (पद २०) । प्रिय के वियोग में सन्त आनन्दघन की आत्मा अपनी सुध बुध खो चुकी है, नेत्र दुःख-महल के झरोखे में झूल रहे हैं, भादों की रात्रि कटारी के समान हृदय को छिन्न-भिन्न किए डाल रही है, प्रियतम की रट लगी हुई है। विरह रूपी भुवंग सेज को खूदता रहता है, भोजन पान की तो बात ही समाप्त हो चुकी है। लेकिन इस दशा का निवेदन किया किससे जाय ? प्रिय सुनता ही नहीं। इसीलिए आनन्दघन की आत्मा उपालम्भ देती है कि 'हे प्रिय ! तुम इतने निष्ठुर कैसे हो गए ? मैं मन, वाणी, कर्म से आपकी हो चुकी और आपका यह उपेक्षाभाव । आप पुष्प पुष्प पर मंडराने वाले भ्रमर का अनुकरण कर रहे हैं। इससे प्रीति का निर्वाह कैसे हो सकता है ? मैं तो प्रिय से एकमेक हो चुकी हूं, जैसे कुसुम के संग वास। मेरी जाति नीच भले ही हो। किन्तु हे प्रिय ! अब तुम्हें गुण अवगुण का विचार नहीं करना चाहिए। यह प्रिय जब आनन्दघन पर कृपा करके दर्शन देता है और उनकी आत्मा को अपनी सहचरी बना लेता है तब वे कह उठते हैं कि हे अवधू ! नारी आज सौभाग्यवती हुई है। मेरे नाथ ने आज स्वयं कृपा किया है, अतएव मैंने सोलहों शृंगार किया है। झीनी सारी में प्रेम प्रतीति का राग झलक रहा है, भक्ति की मेंहदी लगी हुई है, श्रेष्ठ भावों का सुखकारी अंजन शोभायमान है, 'सहज स्वभाव' की चूड़ियाँ धारण किया है, स्थिरता का कंकन पहन रक्खा है, ध्यान रूपी उर्वशी (आभूषण विशेष) उत्तर प्रदेश पर सुशोभित
१. पिया बिन सुधि बुधि भली हो। श्रांख लगाई दुःख महल के झाँखै झूली हो ॥ ४१ ।।
(अानन्दधन बहोत्तरी, पृ० ३७५) २. भाई की राति काती सी बहै, छाती छिन छिन छीना। प्रीतम सब छबि निरख के हो, पीउ पीउ पिउ कीना।। ५१ ।।
(अानन्दघन बहोत्तरी, पृ० ३७६) ३. पिया बिन मुध बुध मूंदी हो।
विरह भुवंग निसा समै, मेरी से जड़ी खूदी हो। भोयण पान कथा मिटी, किसकूँ कहुँ सुद्धी हो ॥६२॥
(पृ० ३८४) पिया तुम निटुर भए क्यूं ऐसे । मैं मन बच क्रम करी राउरी, राउरी रीति अनैसे ।। फूल फूल भंवर कैसी भाउंरी भरत हो निब है प्रीति क्यूं ऐसें । मैं तो पिय ते ऐसे मिली पाली कम्म वास संग जैसे ।।
ओछी जात कहा पर एती, नीर न हयै मैंसें । गुन अवगुन न विचारौ अानन्दवन, कीजिये तुम हो तैसें ।।३२।।