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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
ग्रहण किया था। इन कवियों में साम्य देखकर यही कहना अधिक उपयुक्त होगा कि ये सभी कवि संत और मुनि भी थे और अनुभवजनित तथ्य ही इनके द्वारा व्यक्त हुआ है। इसी कारण इनमें साम्य है । हाँ, कबीर के लगभग दो ढाई सौ वर्षों पश्चात् संत आनन्दघन हुए, जो कबीर से अवश्य प्रभावित थे। इसी प्रकार संत सुन्दरदास और बनारसीदास के जीव जगत सम्बन्धी विचारों में काफी साम्य है।
योगीन्दु मुनि, मुनि रामसिंह और कबीर :
प्रारम्भ में सिद्धों, नाथों तथा अन्य सम्प्रदाय के कवियों के साहित्य का विशद परिचय न होने के कारण कतिपय अालोचकों ने कबीर साहित्य का अध्ययन करते समय, उन पर अनेक प्रकार के मिथ्या आरोप लगाए। कबीर में बाह्याडम्बरों के खंडन-मंडन की प्रवृत्ति को देखकर, उन्हें प्रच्छन्न रूप से इस्लाम का प्रचारक, नूतन मत प्रवर्तक, हिन्दू-विधि-विधान का निन्दक और न जाने क्या-क्या कहा गया। लेकिन अब अपभ्रंश साहित्य के प्रकाश में आ जाने के पश्चात् यह स्पष्ट हो गया है कि न केवल कबीर ने मूर्ति पूजा को व्यर्थ का आडम्बर बताया था, तीर्थ स्नान को कोरा श्रम और दिखावा कहा था, कर माला को पाषंड का प्रतीक घोषित किया था और मात्र शास्त्र ज्ञान से पूर्ण सत्य की जानकारी असम्भव बताया था, अपितु उनके छः सात सौ वर्षों पूर्व से ही उनसे कठोर भाषा में बाह्याचारों और दिखावे की प्रवृत्ति की निन्दा और विरोध होने लगा था। सिद्धों ने तो सहज जीवन पर जोर दिया ही था। जैन कवियों ने भी कबीर से भी अधिक तिलमिला देनेवाली भाषा में बाह्य विधानों की सारहीनता पर प्रहार किया था। कबीर ने कहा कि यदि आत्मतत्व को नहीं पहचाना तो स्नान और मंजन से क्या लाभ ? अन्तःविकारों के होने पर बाह्य शरीर की स्वच्छता निरर्थक है। शरीर का सैकड़ों बार मार्जन करने पर भी राम नाम के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती। दादुर सदैव गंगा में ही रहता है, लेकिन वह निर्वाण को नहीं प्राप्त होता। इसीलिए कबीर समस्त बाह्यविधानों को त्यागकर रामनाम का स्मरण करने का उपदेश देते हैं, क्योंकि वही (रामनाम) अभय पददाता है।' यही बात बहुत पहले ही मुनि रामसिंह
१. क्या है तेरे न्हाई धोई, आतमराम न चीन्हा सोई।
क्या घट ऊपरि मंजन कीयै भीतरी मैल अपारा॥ राम नाम बिन नरक न छूटै, जो धोवै सौ बारा । ज्य दादुर सुरमरि जल भीतरि हरि बिन मुकति न होई ।। परिहरि काम राम कहि बौरे, सुनि सिखु बंधू मोरी। हरि को नांव अभैरददाता, कहै कबीरा कोरी । १५८ ।
(कबीर, पृ० ३२२)