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दशम अध्याय
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ने कहा था कि जब तक ग्राभ्यन्तर चिन मलिन है, तब तक बाह्य तप से क्या लाभ? चित्त में उम निरजन को धारण कर, जिससे मलिनता से छुटकारा मिले :
अन्भिन्तर चिनि वि मइलियई बाहिरि काई नवेग । चित्ति णिरञ्जणु को वि धरि मुच्चहि जेम मलेण ॥३३॥
०१८) मुनि रामसिंह के बाद एक और जैन कवि ह है - ग्रानन्दतिलक । उन्होंने भी कहा है कि भीतर पाप मन भरा है, लेकिन मर्च लोग स्नान करने हैं। जो मल या विकार चित्त में लगा है, वह स्नान से कैसे मिट मकता है ?
भित्तरि भरिउ पाउमलु, मढ़ा करहि सराहाणु।
जे मल जाग चित्त महि अणन्दा रे ! किम जाय सरहाणि ॥४॥ उक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि कबीर और दोनों जैन कवि वाह्य स्वच्छता की अपेक्षा आन्तरिक गुद्धि पर अधिक बल देते हैं। दोनों में अन्तर इतना ही है कि कबीर भक्त थे, अतएव उन्होंने 'राम' नाम के मुमिन्न पर जोर दिया है
और मुनि रामसिंह ने 'निरंजन तत्व' को अन्तर में धारण करने का उपदेश दिया है। आनन्दतिलक ने भी मुनियों को ध्यान रूपी सरोवर में अमृत जल से स्नान करके आठों प्रकार के कर्म मल धोकर निर्वाण प्राप्त करने का मार्ग सुझाया है।' कवीर ने एक पद में चित्त शुद्धि पर बल देते हुए फिर कहा है कि जिसके हृदय में मैल है, यदि वह तीर्थों में भी स्नान करे तो उसे बैकुण्ठ नहीं प्राप्त हो सकता। तीर्थ भ्रमण की असारता का उल्लेख कबीर और जैन कवियों ने लगभग समान रूप से किया है। कबीर ने एक अन्य पद में कहा है कि योगी. यती, तपस्या करने वाले और सन्यासी अनेक तीर्थों में भ्रमण करते हैं। कुछ लोग ( जैन साधु ) केश लुचन करते हैं और अन्य मुंज की मेखला धारण करते हैं या मौन रहकर जटा धारण करते हैं। किन्तु परमतत्व की जानकारी के अभाव में ये सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ठीक इन्हीं शब्दों में जैन मुनि योगीन्दू और रामसिंह तीर्थ भ्रमण को व्यर्थ का श्रम ठहरा चुके थे। योगीन्दु मुनि ने आत्मा को ही सर्वोत्तम तीर्थ माना था (परमात्मप्रकाश, ९५)। इसीलिए तीर्थ जाने वालों से कहा था कि हे मूढ़ ! तीर्थ-तीर्थ भ्रमण करने से मोक्ष नहीं मिलता
१ मण सरोवर अभिय लु मुणिंवरु करइ सणहाणु। अट कम मल धावहिं अणंदा रे ! णियडा पाहु णिव्वाणु ||५||
(आणंडा) २. संत कबीर, एद ३७, पृ० १२७ । ३. जोगी जती ती मंनिबासी बहु तीरथ भ्रमना । टु जित मुंजित मानि जटाधर अंति तऊ मरना ॥५॥
(मंत कबीर, पृ०६५)