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दशम अध्याय
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इस्लाम और सूफी सम्प्रदाय से प्रभावित थे। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने भी लिखा हैं कि 'इनकी (कबीर ) रचना में अद्वैतवादी वचन भी हैं। सूफियों के सत्संग से प्राप्त प्रेम की पीर भी मिलती है। वैष्णवों का अहमाद भी मिश्रित है । हिन्दू मुसलमानों की एकता में ये विशेष रूप से संलग्न रहे । ज्ञान मार्गी अद्वैतवाद, प्रेममार्गी तसव्वुफ ( सूफीमत ), अहिंसा प्रधान वैष्णव नातिवाद, मुसलमानी एकेश्वरवाद और नाथ पंथियों का योग मार्ग सबका आपातक मिलता है कबीर पंथ में । "
वस्तुतः सत्य एक ही है । उसकी अनुभूति भी एक ही प्रकार की हो सकती है । पहुंचने के मार्ग भले ही भिन्न और अनेक हों। यही कारण है कि विभिन्न युगों में नाना साधना मार्गों के सन्त और साधक अन्ततः एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते रहते हैं । अतएव भिन्न युगों और सम्प्रदायों के साधकों में जो वर्णन साम्य मिलता है, उसे केवल पूर्ववर्ती साधक का परवर्ती साधक पर प्रभाव मात्र नहीं नहीं माना जा सकता और न दो कवियों के समान-कथन को देखकर, दूसरे द्वारा प्रथम का भावापहरण मात्र कहा जा सकता है। वस्तुतः ये संत जब परम सत्य का अनुभव कर लेते थे तो अनायास एक ही प्रकार की बातें करने लगते थे, उनका सम्प्रदाय भले ही भिन्न हो । हाँ ! कभी-कभी एक सम्प्रदाय या साधक, दूसरे सम्प्रदाय अथवा संत को प्रभावित भी करता था । किन्तु इस प्रभाव - ग्रहण और स्वतः दर्शन के बीच कोई निश्चित रेखा नहीं खींची जा सकती ।
संत कवि और जैन कवि :
इस दृष्टि से विचार करने पर हम देखेंगे कि कबीर तथा अन्य संत न केवल सिद्धों, नाथों, सूफियों या वैष्णवों से प्रभावित थे, अपितु जैन काव्य और संतकाव्य में भी अद्भुत समानता है। दोनों में बाह्याडम्बर का विरोध मिलता है, मात्र पुस्तकीय ज्ञान को ब्रह्मानुभूति कराने में असमर्थ बताया गया है, चित्त शुद्धि और मन के नियन्त्रण पर जोर दिया गया है, गुरु को विशेष महत्व मिला है, आत्मा-परमात्मा का प्रिय प्रेमी के रूप में चित्रण हुआ है, ब्रह्म की सत्ता घट में निरूपित होते हुए भी उसे सर्वव्यापक तथा निर्गुण, निराकार और प्रज माना गया है और पाप-पुण्य दोनों को समान रूप से बंधन का हेतु, अतएव त्याज्य घोषित किया गया है । यद्यपि योगीन्दु मुनि कबीर से लगभग छः-सात शताब्दी पूर्व हुए थे और मुनि रामसिंह कम से कम चार-पाँच शताब्दी पूर्व विद्यमान थे तथापि इन दोनों जैन कवियों और कबीर की बानियों में काफी साम्य पाया जाता है । कबीर शिक्षित नहीं थे । अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि कबीर ने परमात्म प्रकाश, योगसार अथवा पाहुड़दोहा पढ़कर उससे प्रभाव
१. डा० गोविन्द त्रिगुणायत — कबीर की विचारधारा, पृ० ६६ से १६० तक । २. हिन्दी साहित्य का अतीत ( भाग १ ), पृ० १४२ ।