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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
अभिव्यकिभी नहीं हो सकती। वह मन और वाणी का अविषय है। इसी . कारण समस्त शास्त्रों का ज्ञाना भी उसके स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है। अतएव उसकी प्राप्ति में प्रस्नकीय ज्ञान सहायक नहीं हो सकता।' श्रीकृष्ण ने इसोलिए गीता में कहा था मैं न वेदों द्वारा प्राप्य हूं, न तप, दान अथवा यज्ञ द्वारा....."२ परिणामतः गुरु को अनुकम्पा को भी प्राथमिकता दी गई। उसकी ब्रह्म की कोटि में गणना हुई।
इम विराट ब्रह्म के लिए यह भी कहा गया है कि वह बुद्धि का अविषय है। म्यून बौद्धिक ज्ञान मात्र से उसकी प्राप्ति सर्वथा असम्भव है। वह अतीन्द्रिय है। अतः न नेत्रों द्वारा देखा जा सकता है, न वाणी द्वारा उसका वर्णन हो सकता है। नभः प्रकार के तापोर कर्म भो विफल हो जाते हैं। विशुद्ध सत्व व्यक्ति मच्चे ज्ञान के पनाद में उन निकल आत्म-तत्व का साक्षात्कार कर सकते हैं। अतः विन गुद्धि परन आवश्यक तत्व है। प्रत्येक साधक को अपने चित्त को ममस्त कामनागों, कानों एवं विकारों से दूर करना पड़ता है। निर्मल चित व्यनिका मन पारसी के समान स्वच्छ हो जाता है, जिसमें शरीरस्थ ब्रह्म अथवा गुडानमा कमलक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगती है।
उनिपद के इम अध्यात्म दर्शन का भारतीय धर्म साधना पर व्यापक प्रभाव पड़ा। काध और दर्शन के क्षेत्र में इस सिद्धान्त की धारा अप्रतिहत गति से अनवरत रूप में प्रवाहित होती रही है। प्रत्येक समय में एक अथवा अनेक मात्मदर्शी सन्तों द्वारा उपनिषद् के आत्म-तत्व का विश्लेषण, विवेचन और ज्ञापन होता रहा है । परवर्ती सन्तों द्वारा इसका विविध रूप में उपयोग किया गया है। मिद्ध माहित्य, नाथ साहित्य और सन्त साहित्य पर इसका व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है। एक प्रकार से उपनिपद् साहित्य में वर्णित ब्रह्मतत्व की अपाना, आत्मतत्व की अनिर्वचनीयता, चित्त शुद्धि पर जोर, का -विरोध और सहजसाधना आदि ही वे आधार शिलाएँ है, जिन पर उपयुक्त माहित्य के भवन का निर्माण किया गया है। इन मतों की स्थापनशैली में चाहे जो भी अन्तर हो अथवा यत्र तत्र नवीन वात ही क्यों न कही गई हो किन्तु मूल रूप में मत्र दर्शन उपनिषद के ऋणी हैं. इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।
1. नायमात्मा प्रवचन लनोःन मेधया न बहुना श्रुतेन् । यमर वृणुने नन नमानस्वर अत्मा विवृणुने तन्वम् ।।
(मुण्डक ३, २, ३) ना वेदेन नामा न दानेन न चेन्यया। शक्य एवं विधो दृष्टं दृष्ट्वानसि मा यथा । (गीता ११, ५३)