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प्रथम अध्याय
अपनी प्राचीन औपनिषदिक् परम्परा नहीं थी । आपने प्रमुख रूप से अपने समय के उन नवयुवक कवियों का विरोध एवं निन्दा की, जो रहस्यवाद के नाम पर अस्पष्ट और दूराड़ कल्पनाएं करके अटपटे और अर्थहीन काव्य की सर्जना कर रहे थे अथवा ग्ल भाषा के ब्लैक, ईट्स सा स्वच्छन्दतावादी कवियों का अन्धानुकरण कर रहे थे। वैसे सिद्धान्ततः आपने भी स्वीकार किया हैं कि "हिन्दी काव्य क्षेत्र में उसकी ( रहस्यवाद की ) प्रतिष्ठा बहुत दिनों पहले से वड़े हृदयग्राही रूप में हो चुकी है। कबीर आदि निर्गुण पन्थियों और जायसी आदि सूफी प्रेम मागियों ने रहस्यवाद की जो व्यंजना की है, वह भारतीय भावभंगी और शब्दभंगी को लेकर ।"" शुक्ल जी के उपर्युक्त कथन से रहस्यवाद की प्राचीनता और भारतीयता दोनों सिद्ध होते हैं। इससे यह भी संकेत मिलता है कि कबीर आदि निर्गुणी सन्तों पर परोक्ष रूप से उपनिषद् का और प्रत्यक्ष रूप से सिद्धों, नाथों और ( परवर्ती ) जैन कवियों का प्रभाव था । कम-से-कम वह इन्हीं आत्मवादियों की परम्परा में आते हैं, इतना तो निश्चित ही हो जाता है ।
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यह 'रहस्यवाद' अथवा 'गुह्य ज्ञान' उस साधना के लिए प्रयुक्त होता था, जो समस्त बाह्य आडम्बरों का विरोध करती थी, जिसने ब्राह्मणों के द्वारा प्रवर्तित यज्ञ, बलि, जप, तप आदि क्रिया कलापों को पापण्ड और दिखावा मात्र कहकर सारहीन सिद्ध कर दिया था और जिसने सच्चे ग्रात्मस्वरूप की प्राप्ति और पहचान के लिए चित्त शुद्धि पर जोर देने का प्रस्ताव रक्खा था । उपनिषद् साहित्य में ज्ञान की इसी शाखा को, जिसे 'सहजानुभूति या स्वसंवेद्यज्ञान' कहते हैं, प्राथमिकता दी गई है । इस धारणा के अनुसार एक निर्लिप्त, निर्विकार शुद्धात्म तत्व है, जो सर्वत्र परिव्याप्त है । अखिल विश्व के कण-कण में उसकी सत्ता विद्यमान है । किन्तु 'पद्मपत्रमिवाम्भसा' वह सभी से निर्लिप्त है । वह अणु से भो सूक्ष्म और महान् से महान् है । प्रत्येक जीवधारी में उसका निवास है । शरीर में ही उसकी अवस्थिति होने के कारण बाहर उसकी खोज करना निरर्थक है । वह सर्वभूतान्तरात्मा एक होकर भी अपने को अनेक रूपों वाला कर लेता है और वर्ण होने पर भी अनेक वर्ण धारण कर लेता है । वह पगहीन होने पर भी गतिशील है, कर्णविहीन होकर भी श्रवण शक्ति रखता है, नेत्रहीन होकर भी सर्वदृष्टा है, सर्वव्यापी है और सर्वशक्तिमान है। उस परमसत्ता की शाब्दिक
१. रामचन्द्र शुक्ल - चिन्तामणि ( भाग २ ) पृष्ठ १४६ ।
२. इहैवान्तः शरीरे सोम्य सपुरुषः ( प्रश्न० ६, २ ) ।
य एको वर्णों बहुधा शक्तियोगाद्वर्णानने का न्निहिताथों दधाति (श्वेता० ४.१ ) पाणिपादो जवनो ग्रहीता, पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्कर्णः ।
३.
४.
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्तिऽवेत्ता, तमाहुरग्रयं पुरुषं महान्तम् ॥
( श्वेता० ३, ३, १६ )