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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद विवाद का विषय बना रहा है। आज से कुछ वर्षों पूर्व हिन्दी साहित्य में इस शब्द को लेकर पर्याप्त मतवादा की सृष्टि भी हो चुकी है। कुछ विद्वान 'रहस्यवाद को एक विदेशी सिद्धान्त मानते रहे हैं और सूफियों को इसका जनक मानने के पक्ष में रहे हैं। उन्होंने इसाई सन्तों को भी सूफियों से प्रभावित माना है। कुछ लोगों ने यह भी कहा कि 'मेसोपोटामियां या बाबिलन के बाल, ईस्टर प्रभृति देवनानों के मन्दिर में रहने वाली देवदासियाँ ही धार्मिक प्रेम की उद्गम हैं।" किन्तु इस प्रकार के कथन अधिक युक्तियुक्त एवं तर्कसङ्गत नहीं प्रतीत होते हैं। वस्तुत: 'रहस्य' शब्द अति प्राचीन न होते हुए भी, सांकेतित सिद्धान्त निश्चय ही पुरातन और भारतीय है, भले ही वह 'गुह्य' साधना अथवा अन्य पर्यायवाची संज्ञाओं से अभिहित किया जाता रहा हो। वेदान्त में तो स्पष्टतः प्रध्यान्म विद्या की गृह्यता के प्रमाग मिलते हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद् में एक स्थान पर कहा गया है कि उपनिपदों में परम गोपनीय पूर्वकल्प में प्रचोदित अध्यात्म विद्या का उपदेश दिया गया है : 'वेदान्ते परमं गुह्यं पुराकल्पे प्रचोदितम्' (श्वेता० ६, २२) गीता में श्रीकृष्ण ने स्थान-स्थान पर अध्यात्मज्ञान की 'गुह्यता का संकेत किया है और अन्त में तो स्पष्ट रूप से कह दिया है कि यह ज्ञान 'गुह्यतिगुह्यतर' है : 'इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यातिगुह्यतरं मया' 'गृह्य' और 'रहस्य' शब्द समानार्थक हैं, इस पर दो मत नहीं हो सकते। स्वयं उपनिषद् शब्द ही 'रहस्यात्मकता' का द्योतक है, जिसका अर्थ होता है 'रहस्यमय पूजापद्धति । रहस्यवाद की अविछिन्न परम्परा प्रत: मेरा अपना विचार तो यह है कि जिस समय रामचन्द्र शुक्ल जैसे प्रकाण्ड पण्डित और समर्थ विवेचक रहस्यवाद को विदेशी विचारधारा और 'देशी वेप में विदेशी वस्तु' कहकर विरोध कर रहे थे, उस समय उनकी दृष्टि में १. जयशंकर प्रसाद-काव्यकला तथा अन्य निबन्ध, पृष्ठ ४७, भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद, तृतीय सं०, सं० २००५ वि. Indian Writers use the term (Upanishad in the sense of secret doctrine or Rahsya. Upanishadic texts are generally referred to as Paravidya, the great secret.-Prof. A.Chakravarti -Indroduction to Samay asar of Kund Kund-Bhartiya Gyana Pith, Kashi, Ist Edition, May 1950, Page XLIY-XLY.
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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