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प्रथम अध्याय
के प्रसाद से साक्षात् देखते हैं। इसी प्रकार केनोपनिषद् में कहा गया है कि 'न वहाँ चक्षु जाते हैं, न वाणी और न मन । अन्य उपनिपदों में भी इसी तथ्य की पुष्टि स्थान-स्थान पर मिलती है। 'यतो वाचो निवर्तन्ते ग्रप्राप्य मनसा सही ( तै० ४.१ )
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नैव वाचा न मनसा प्राप्तु ं शक्यो न चक्षुषा । अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ॥
(०२३१२ )
जिस अपरोक्षानुभूति अथवा अन्तर्ज्ञान की चर्चा ऋषियों द्वारा की गई थी, परवर्ती ग्रात्मदर्शी सिद्धों और सन्तों ने उसी के सहारे 'परममुख' की प्राप्ति का प्रयास किया और जैनाचार्यों ने भी उनी का अवलम्ब ग्रहण किया। सिद्धों ने सहजानुभूति अथवा 'सहज साधना' पर जोर दिया, 'ऋजुमार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहित किया, 'सहज स्वभाव' को अमृत रस बताया। जैन आचार्यो ने 'सहज स्वरूप" से रमण द्वारा 'शिव' प्राप्ति का मार्ग बताया। आगे चलकर निर्गुणियाँ संतों ने 'सहज-सरोवर में उठने वाली प्रेम तरंगों में अपने प्रिय के संग भूलने वाले आत्मा का वर्णन किया ।'
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इससे यह निष्कर्ष निकलता कि प्रारम्भ से ही अध्यात्म क्षेत्र में एक शाखा ऐसी रही है, जो वाह्यज्ञान किंवा वौद्धिक व्यायाम के चक्कर में न पड़कर, स्वानुभूति और स्वसंवेद्य ज्ञान पर विश्वास करती रही है। यहीं से रहस्यवाद का जन्म समझना चाहिए। वैसे यह 'रहस्य' शब्द अवश्य
१. न चक्षुप गृह्यते, नावि वाचः नान्यैदेवैस्तपसा कर्मणा वा । ज्ञान प्रसादेन विशुद्ध सत्वस्ततस्तु समश्यते निष्कलं ध्यायमानः ॥
दोहाकोश (राहुल सांकृत्यायन, पृ० १८ ) ५. सहज सरुवइ जइ रमहि तो पावहि
(मुंडक०३, १, ८)
२. न तत्र चक्षुर्गच्छति न वागच्छति न मनो (वेन० १, ३) ३. उजु रे उजु छाहि मा लेहु रे बंक |
णिहि बोहिमा जाहु रे लाङ्क ।
—राहुल सांकृत्यायन, पुरातत्व निबंधावली ( पृ० १७० )
४. सहज सहावा हलें मिश्र रस, कासु कहिज्जइ कीस - सिद्ध सरहपादकृत
सिवसन्दु-योगीन्ददेव, योगसार,
पृ० ३६०, दोहा नं० ८७
६. दादू सरवर सहज का तामें प्रेम तरंग | तह मन झूले श्रातमा, अपने साई संग ॥
-डा० पीताम्बर दत्त बड्थवाल - हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय, पृ० १४६ से उद्धृत ।