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प्रथम अध्याय
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जैन धर्म और साधना का यद्यपि स्वतन्त्र अभ्युदय और विकास हुआ है, उसकी मूलभूत धारणाएं भी अपनी है तथापि उपनिषद् के प्रभाव से वह अछूता नहीं रह सका है । यह अवश्य सत्य है कि जैनमत आत्मा और परमात्मा में कोई श्रन्तर नहीं मानता। उनके अनुसार प्रत्येक आत्मा ही विकार शुन्य होने पर परमात्मा वन जाता है। ब्रह्म की कोई भिन्न स्वतन्त्र सत्ता भी जैनमत को स्वीकार्य नहीं है तथापि अनेक दृष्टिकोणों से दोनों दर्शनों में समता है। इसे हम विस्तार से आगे चलकर देखेंगे। ग्रतएव 'जैन रहस्यवाद' विषय पर कुछ कहने के पूर्व उपनिपद् साहित्य की इस पृष्ठभूमि से परिचित होना निन्तात
आवश्यक 1