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________________ नवम अध्याय २१६ शक्ति का विपमी भाव । अनएव दोनों के मिलन से सभी प्रकार के द्वन्द्वों की समाप्ति हो जाती है। यही भाव है। कील साधना का भी लक्ष्य है – कुल और अकुल का मिलन कुल अर्थात् शक्ति और अकुल अर्थात् शिव का मिलन ही 'सामरस्य है। यही कील ज्ञान है। नाय सिद्धों और कौल साधकों दोनों ने कुण्डलिनी शक्ति को जगाकर सुषुम्ना के द्वारा सहस्रार चक्र में जीवात्मा को पहुंचाकर गगन मण्डल या कैलाश में स्थित 'शिव' से मिला देने को भी समरस' या कहा है। शिव-शक्ति का यह सामरस्य ही परम आनन्द है । शिव-शक्ति की इसी अभिन्नता और सामरस्य का वर्णन करते हुए मुनि रामसिंह कहते हैं कि शिव के बिना शक्ति का व्यापार सम्भव नहीं और शिव भी शक्ति विहीन होकर कोई कार्य नहीं कर सकते। इस दोनों को जान लेने से सम्पूर्ण संसार का ज्ञान हो जाता है और मोह विलीन हो जाता है। शिव शक्ति का मिलन ही चरम साध्य है। जब चित्त परमेश्वर से मिल जाता है। और परमेश्वर मन से अर्थात् 'समरसता' की स्थिति आ जाती है तो फिर किसकी पूजा की जाय और कौन पूजा करे ? ( दोहा पाहुड़ दो० नं० ४९ ) । योगीन्दु मुनि ऐसे योगियों की बलि जाते हैं तथा उनके प्रति बार बार मस्तक नवाते हैं, जो शून्य पद का ध्यान करते हुए इस समरसी भाव को पहुंच चुके हैं और जिनके लिए पुण्य पाप दोनों ही उपादेय नहीं रह गए हैं : 'सुराउं परं मायंताहं वलि बलि जोइयडाहं । समरसि भाउ परेण सहु पुराणु त्रि पाउण जाहं ॥ २ ॥ १५६ ॥ परमात्मप्रकाश, पृ० ३०१ ) अन्य समानताएँ: नाथ सिद्धों और जैन मुनियों दोनों में बाह्याचार खण्डन की प्रवृत्ति भी समान रूप से मिलती है । दोनों चित्त शुद्धि पर जोर देते हैं, तीर्थ स्नान को व्यर्थ समझते हैं, केवल पुस्तकीय ज्ञान को निरर्थक बताते हैं और दोनों की साधनाओं में गुरु को महत्वपूर्ण स्थान मिला है। गोरखनाथ कहते हैं कि हे पण्डित ! कैसे बताऊँ कि देव कहाँ है ? तू अपने और मेरे में परम तत्व को क्यों नहीं देखता ? पत्थर के देवालय में स्थित पत्थर की पूजा करता है । सजीव को तोड़कर निर्जीव की उपासना का पाप करता है, इससे तेरा उद्धार कैसे हो सकता है ? तू तीर्थों में १. दोहानहुड, दो० नं ५५ । २. दो० नं० १२७ । 23
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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