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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यबाद
मध्य
( दोहापाहुड़, दो० नं० १६८ ) । वाम और दक्षिण ( इड़ा - पिंगला ) में स्थित ( सुषुम्ना ) की सहायता से अपर ग्राम बसाने की भी आप चर्चा करते हैं (दो० नं० १८२ ) । योगीन्दु मुनि जब यह कहते हैं कि जो नासिका पर दृष्टि रखकर अभ्यन्तर में परमात्मा को देखते हैं, वे इस लज्जाजनक जन्म को फिर से धारण नहीं करते और वे माता के दूध का पान नहीं करते, तब उनका मन्तव्य हठयोग साधना से ही है । इसी प्रकार मुनि रामसिंह के इस कथन में, कि जिसका मोह विलीन हो जाता है, मन मर जाता है, श्वास- निश्वास टूट जाते हैं और अम्बर ( गगन मण्डल ) में जिनका निवास है, वे केवलज्ञान को प्राप्त होते हैं, प्राणायाम और हठयोग की ओर ही संकेत है।
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सन्त आनन्दघन हठयोग की साधना से विशेष रूप से प्रभावित प्रतीत होते हैं। वह अनेक पदों में 'अवधू' के सम्बोधन द्वारा इसी साधना की बात करते हैं । वह 'आत्मानुभव' और 'देह देवल मठवासी' की बात कुछ साखियों में इस प्रकार करते हैं :
'आतम अनुभव रसिक को, अजब सुन्यो बिरतंत । निर्वेदी वेदन करै, वेदन करै अनन्त ॥ माहारो बालुड़ो सन्यासी, देह देवल मठवासी । इडा-पिंगला मारग तजि जोगी, सुषमना घरबासी ॥ ब्रह्मरंध्र मधि सांसन पूरी, बाऊ अनहद नाद बजासी । यम नीयम आसन जयकारी, प्राणायाम अभ्यासी ॥ प्रत्याहार धारणा धारी, ध्यान समाधि समासी । मुल उत्तर गुण मुद्राधारी, पर्यंकासन वासी ॥ ( श्रानन्दघन बहोत्तरी, पृ० ३५८ )
शिव-शक्ति :
जैसा कि आठवें अध्याय में कहा जा चुका है कि 'सामरस्य भाव' उस युग की महत्वपूर्ण साधना थी । सिद्धों, नाथों, कौलमार्गियों और जैन मुनियों आदि सभी साधकों में इसका वर्णन किसी न किसी रूप में मिल जाता है । शैव और शाक्त साधना के अनुसार इस सृष्टि प्रपंच का मूल कारण है शिव
१. णासग्गिं श्रभिन्तरहं जो जोवहिं
असरीरु । बाहुडि जम्मिण सम्भवहिं पिवहिं ण जणणी खीरु ||६० ॥
२. मोहु विलिज्जइ मणु मरइ केवल णाए वि परिणव
( योगसार, पृ० ३८४ ) तुहइ सासु णिखासु । बहि जासु णिवासु || १४ || (पाहुड़दोहा, पृ० ६ )