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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद स्नान करता है। बाह्य स्नान से आभ्यंतर का मल कैसे दूर हो सकता है ? गोरखनाथ इसी प्रकार पढ़ने लिखने को मात्र लोकाचार मानते हैं तथा पूजा पाठ को भी व्यर्थ समझते हैं। गोरखनाथ के ही समकालीन मुनि रामसिंह थे। उन्होंने भी बाहरी तप की अपेक्षा चित्त शुद्धि पर जोर दिया है (दो० नं० ६१), पत्तो, पानी, दर्भ, तिल आदि से पत्थर की पूजा की निन्दा की है (दो० नं० १५९), तीर्थों के भ्रमण को लाभहीन बताया है (दो० नं० १६२) और ग्रन्थ तथा उसके अर्थ से सन्तुष्ट रहने वाले व्यक्ति को कण को छोड़कर तुष कूटने वाले के समान बताया है ( दो० नं०८५)। जिस प्रकार चरपटनाथ जी ने बाहरी वेष बनाने वालों, जटा रखने वालों, तिलक लगाने वालों और पीत वस्त्र धारण करने वालों के आडम्बर की खिल्ली उड़ाई है, उसी प्रकार योगीन्दु मुनि, मुनि रामसिंह रूपचन्द और संत आनंदघन आदि जैन मुनियों ने दिखावा करने वालों की खबर ली है, भले ही आडम्बर करने वाला जैन ही क्यों न हो।
नाथ सिद्धों ने जैन मुनियों के समान ही आत्मा और ब्रह्म की एकता का निरूपण किया है और मन को वश में करना साधक का प्रमुख कर्तव्य बताया है। संत काणेरी जी ने तो यहाँ तक कहा है कि समुद्र की तरंगों का पार पाया जा सकता है लेकिन मन की लहरों का पार पाना सम्भव नहीं। इसीलिए मुनि रामसिंह ने मन-करभ को नियन्त्रित करने पर बार बार जोर दिया है। दोनों मार्गों के साधकों ने 'माया' को अपना परम शत्रु माना है। योगी की साधना भंग इसी के द्वारा होती है। गोरखनाथ ने कहा है कि माया रूपी सर्पिणी अबला
१. कैसे बोलौं पण्डिता, देव कौने ठाई ।
निज तत निहारतां, अम्हे तुम्हें नाहीं ॥ पाषांणची देवली पाषांण चा देव, पांग पूजिला कैसे फटीला सनेह । सरजीव तोडिला निरजीव पूजिला, पाप ची करणीं कैसे दूतर तिरीला ॥ तीरथि तीरथि सनांन करीला, बाहर धोए कैसैं भीतरि भेदीला । आदिनाथ नाती मछींद्रनाथ पूता, निज तत निहारै गोरख अवधूता ॥३॥
(संत सुधा सार, पृ० ३७) २. छोड़ो वेद वणज व्यौपार । पदबा गुणि बा लोकाचार । पूजा पाठ जपो जिनि जाप । जोग मांहि विटंबौ श्राप ॥
(हिन्दी काव्यधारा, पृ० १६३) इक पोत पटा इक लम्ब जटा । इक सूत जनेऊ तिलक ठटा । इक जंगम कहीए भसम छटा । जड़लउ नहीं चीनै उलटि घटा ॥ तब चरसट सगले स्वांग नटा ॥ २०१||
(नाय सिद्धों की बानियाँ, पृ० ३४) ४. समदां की लहर्यो पार जु पाइला। मनवां की लहां पार न पावै रै लो ।
(नाथ सिद्धों की बानियाँ, पृ० १०)