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अष्टम अध्याय
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गज और तुरंग सबसे पहले निर्वाण लाभ करेंगे ।' कहने का तात्पर्य यह है कि शरीर को कष्ट देने से और मात्र दिखावे से कोई मोक्ष का अधिकारी नहीं हो जाता। इसी प्रकार योगीन्दु मुनि कहते हैं कि जिन दीक्षा लेकर केश लुचन आदि क्रियाएं करना तथा परिग्रह का त्याग न करना आत्मा प्रवंचना है। आगे वह योगसार में फिर कहते हैं कि पढ़ लेने से धर्म नही होता, पुस्तक और पिच्छीधारण करने से भी धर्म नहीं होता, मठ में रहने में धर्म नहीं होता और केशलोंच से भी धर्म नहीं होता ( दोहा नं ० ४७ ) | जिस प्रकार सरह ने कहा कि पडितजन सकल शास्त्रों का वर्णन करते हैं, लेकिन देह में निवास करने वाले बुद्ध को नहीं जानते और कण्हपा ने कहा कि पंडित जन आगम, वेद, पुराणों का ही अध्ययन करते रहते हैं, किन्तु इन ग्रन्थों से वे ब्रह्मानन्द उसी प्रकार नहीं प्राप्त कर पाते जिस प्रकार पके हुए श्रीफल के चतुर्दिक भ्रमण करने वाला भ्रमर रस से वंचित रहता है, ठीक उसी प्रकार योगीन्दु मुनि और मुनि रामसिंह ने केवल शास्त्र ज्ञान से परमात्म- पद प्राप्ति असम्भव घोषित किया। योगीन्दु मुनि ने कहा कि शास्त्र पढ़ता हुआ भी वह व्यक्ति मूर्ख है जिसने विकल्प का परित्याग नहीं किया और शरीर में ही स्थित परमात्मा को नहीं जाना ( परमात्मप्रकाश, २-८३) । मुनि रामसिंह ने भी कहा कि है पण्डितों में श्रेष्ठ ! तूने कण को छोड़कर तुष को कूटा है, क्योंकि तू ग्रन्थ और उसके अर्थ से ही सन्तुष्ट है, किन्तु परमार्थं को नहीं जानता ( दो० नं० ८७) । पट्दर्शन के धंधे में पड़ने से भ्रान्ति नहीं मिटं सकती ( दो० नं० ११६) |
सिद्धों का विश्वास था कि बुद्ध का निवास शरीर में ही है, इसलिए उसे मंदिर या तीर्थ में खोजना समय और श्रम का अपव्यय है। तीर्थ स्नान और
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जइ जग्गा विश्र होइ मुत्ति, ता सुबह सिश्रालह | लोमुरडणे अतिथ सिद्धि, ता जुबइ गिवह || पिच्छे गहणे दिट्ठू मोक्ख, ता मोरह चमरह | उच्छे भीर्णे होइ जांण, ता करिह तुरंगह ||
(दोहाकोश, पृ० २ )
केण विप्पड वंचियउ सिरु लुंचिवि द्वारेण । सयल वि सगण परिहरिय जिणवर लिंग धरेण ॥ २६० ॥
पंडि साल सत्य वक्खाणा । देहहिं बुद्ध वसन्त ण जाणअ ॥
(परमात्मप्रकाश, पृ० २३२ )
(दोहाकोश, पृ०१८ )
श्रागम वे पुरार्णे (ही), परिश्रमाण वहन्ति । पक्क सिरीफले अलि जिम, बाहेरी भमन्ति || २ ||
( हिन्दी काव्यधारा, पृ० १४६