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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद
तपोवन में भ्रमण मिथ्याशियों की बाते हैं । ' इसीलिए सरहपाद इस शरीर को ही सरस्वती, सोमनाथ, गगासागर, प्रयाग और वाराणसी तथा क्षेत्रपीठ उपपीठ आदि सभी कुछ मानत हैं। यह एक बड़ा ही विचित्र तथ्य है कि इन सिद्धों, जैनों तथा आगे चलकर सन्त कवियों द्वारा एक अोर शरीर को क्षणभगर तथा विनश्वर कहकर उससे मोह न करने का उपदेश दिया गया, दूसरी ओर देह को ही सर्वोत्तम तीर्थ तथा देवालय माना गया। यह कथन देखने में भले ही 'परस्पर विरुद्ध' लगे, किन्तु वास्तविकता यह है कि इन साधकों ने शरीर को ही साध्य न मानकर, साधन रूप में इसके उपयोग का सुझाव दिया और देहस्थ आत्मा एवं ब्रह्म की एकता का निरूपण किया। योगीन्दु मुनि ने कहा कि जैसे बट वृक्ष में ही बीज होता है और वोज में ही वृक्ष ठीक उसी प्रकार देह में ही देव को समझो। यह आत्मा ही शिव है, विष्णु है, बुद्ध है, ईश्वर है और ब्रह्मा है। आत्मा ही अनन्त है, सिद्ध है । ऐसे देवाधिदेव का वास शरीर में ही है :
जं वड मज्झहं बीउ फुडु, बीयहं वडु वि हु जाणु । तं देहह देउ वि मुणहि, जो तइलोय पहाणु ॥७४।। सो सिउ संकरु विण्हु सो, सो रुद वि सो बुद्ध । सो जिणु ईसरु बंभु सो, सो अणंतु सो सिद्ध ॥१५॥ एव हि लक्खण लक्खियउ, सो परु णिक्कलु देउ । देहई मज्महिं सो वसइ, तासु ण विज्जइ भेउ ॥१०६॥
(योगमार, पृ० ३८७ तथा ३६४) मुनि रामसिंह ने शरीर को ही एक मात्र देवालय मानते हुए कहा कि देहरूपी देवालय में जो शक्ति के सहित निवास करता है, वह शिव कौन है ? इस भेद को जान (दो० नं० ५३) । लेकिन इस शिव को मन्त्र तन्त्र से नहीं जाना जा सकता। काया को क्लेश देने से यह प्राप्त नहीं हो सकता। पुस्तकें उसका आस्वाद कराने में असमर्थ हैं। कहीं फलवाले वृक्ष के दर्शन मात्र से पेट भरता है या वैद्य के दर्शन मात्र से रोग दूर होता है। उसका अनुभव तो विशुद्ध चित्त वाला साधक गुरु की कृपा होने पर करता है। इसीलिए सरहपाद कहते हैं कि जिसे गुरु उपदेशरूपी अमृत रस पीने को नहीं प्राप्त हुआ, वह अनेक शास्त्रों और उनके अर्थरूपी मरुस्थली में भटकता हुआ प्यासा ही मर जाता है :
'गुरु उवएसें अमिअ रसु, धाव ण पीअउ जेहि । बहु सत्थत्थ मरुत्थलहिं, तिसिए मरिअउ तेहि ॥५६॥
( हिन्दी काव्यधारा, पृ०८)
१. किन्तह तित्य तपोवण जाई । मोक्ख कि लब्भपाणी न्हाई ॥१५॥
(सरहपाद-हिन्दी काव्यधारा, पृ०६) २. एकु से सरसइ सोवणाह, एकु से गंगासाअरु । वाराणसि पयाग एकु, से चन्द दिवाअरु ||६||
(दोहाकोश, पृ० २२)