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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद
मतिभ्रम का शिकार होगा, वह कभी भी सच्ची रहस्यानुभूति की प्राशा कर ही नहीं सकता। रहस्यदर्शी की कल्पना का शक्तिशाली होना अनिवार्य है। उसमें सूक्ष्म, शुद्ध और निभ्रम ज्ञान का होना आवश्यक है। कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है कि संसार में जीव रहित शरीर को शव कहते हैं, इसी प्रकार सम्यक् ज्ञान से रहित व्यक्ति भी चलते हुए शव के समान है। 'शव' संसार में अपूज्य होता है और 'चल शव' लोकोत्तर में अपूज्य होता है।' इससे सम्यक् ज्ञान की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। 'मोक्खपाहुड़' में ज्ञान आठ प्रकार के बताए गए हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, केवल ज्ञाम और कुमति, कुश्रुत, विभंगा। इनमें से प्रथम पाँच श्रेष्ठ ज्ञान हैं और अंतिम तीन अज्ञान से युक्त। अर्थात् प्रथम पांच की उपलब्धि ही श्रेयस्कर है, वही श्रेष्ठ ज्ञान हैं और अंतिम तीन यथार्थ ज्ञान का बोध कराने में अक्षम है। मति, श्रुति आदि पाँचो ज्ञान 'पारमार्थिक प्रत्यक्ष' कहलाते हैं। इनके भी दो भेद माने गए हैं-सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष । केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, शेष विकल प्रत्यक्ष। विकल प्रत्यक्ष की भी सीमाएँ हैं। जिस प्रकार अवधिज्ञान से केवल रूपीद्रव्य ही जाने जा सकते हैं, आत्मादि अरूप द्रव्य नहीं, उसी प्रकार मनः पर्यायज्ञान के द्वारा बाह्य पदार्थों की ही जानकारी सम्भव है, इतर की नहीं। किन्तु केवलज्ञान इससे भिन्न है। वह समस्त ज्ञानावरण के समल नाश होने पर प्रकट होता है। वह केवल या अद्वितीय है। दूसरे ज्ञान उसकी समता नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त मति, श्रुति, अवधि और मनःपर्याय इन्द्रियजनित ज्ञान हैं, अतएव मोक्ष की स्थिति में उनका अभाव हो जाता है, किन्तु केवलज्ञान अतीन्द्रिय है। वह वस्तु का स्वभाव है। अतएव उसका आत्मा में प्रभाव नहीं होता। इसीलिए केवलज्ञान ही सम्यक ज्ञान है। वही प्रात्मा का निजस्वभाव है। इसी के द्वारा ज्ञानावरणादि आठो कर्मों का विनाश होता है। योगीन्दु मुनि ने कहा है कि जो केवलज्ञानमय है, वही जिन है, वही परमानन्द स्वभाव वाला है, वही परमात्मा है और वही आत्मा का स्वभाव है।
१. जीव विमुक्को सबो दमणमुक्को य होइ चलसवो। सवो लोय अपुज्जो लोउत्तरयम्मि चलसवो ॥१४३॥
(भावपाहुड़)
२. श्राभिणिसुदोधिमण केवलाणि णाणाणि पंजभेयाणि | कुमदिसुदविभंगाणि, य तिरिण वि णाणे हिं संजुत्तो ॥४१॥
(कुन्दकुन्दाचार्य-मोक्खपाहुड़)
१. जो जिणु केवल णाणमउ परमाणंद सहाउ । सो परमप्पउ परम परु सो जिय अप्प सहाउ ॥१६७||
(परमा०, दि० महा०, पृ० ३३५)