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सप्तम अध्याय
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इस प्रकार सम्यक ज्ञान की स्थिति में राग-द्वेष, मोहादि मिट जाते हैं, स्व-पर भेद स्पष्ट हो जाता है, सत्य का सूर्य प्रकाशित होता है और सुबुद्धि की किरणें मिथ्यात्व का अंधकार नष्ट कर देती हैं। सम्यक् जानी को किसी बाह्याचार की अपेक्षा नहीं रह जाती। उसका भोग ही समाधि है, चलना फिरना ही योगामन है और बोलना ही मौनव्रत है। बनारसीदास ने कहा है कि बुधजन सम्यकज्ञान को प्राप्त करके द्वन्द्वज को अवस्था और अनेकता का हरण करते हैं, उनके मति, अति, अवधि आदि विकल्प मिट जाते हैं, निर्विकल्प ज्ञान या केवलज्ञान का उदय होता है, इंद्रियजनित सुख दुःख समाप्त हो जाते हैं, कर्मों की निर्जरा हो जाती है और वे सहज समाधि के द्वारा आत्मा की आराधना करके परमात्मा बन जाते हैं।'
सम्यक् चरित्र :
पर-भावों
आत्म पदर्थ और परपदार्थ का भेद ज्ञान हो जाने पर, पर-भावों का त्याग और स्व-भाव में आचरण हो मम्यक् चरित्र कहा जाता है। सम्यक् ज्ञान के द्वारा वस्तु का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है, तब आत्मा अपने स्वरूप के अनुरूप आचरण करता है। यह आचरण हो मोक्ष अथवा परमात्मपद प्राप्ति का अन्तिम सोपान है। इस प्रकार पदार्थों का सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान हो जाने पर तथा सम्यक आचरण करने पर मोक्ष की स्थिति आ जाती है।
सस्पष्ट हारत्र का
रत्नत्रय ही आत्मा :
रत्नत्रय ही आत्मा का स्वरूप है अर्थात् आत्मा सम्यक दर्शन, ज्ञान और चरित्र से युक्त है। रत्नत्रय उसका सहज स्वभाव है। आत्मा को उनसे भिन्न नहीं मानना चाहिए। वस्तुतः आत्मा के स्वरूप की सम्यक् जानकारी ही रत्नत्रय है। अतएव इसको बाह्य विधान के अन्तर्गत नहीं गिनना चाहिए।
१. पंडित विवेक लहि एकता की टेक गहि,
दुदज अवस्था की अनेकता हरतु है। मति श्रुति अवधि इत्यादि विकल्प मेटि,
निरविकलप ग्यान मन में करतु है ।। इन्द्रियजनित मुख दुख सौं विमुख है के,
परम के रूप है करम निजरतु है। सहजसमाधि साधि त्यागि पर की आधि, __ आतम अराधि परमातम करतु है ।।१६।।
(नाटक समयसार, पृ० १८०) २. जाणवि मण्ण वि अप्पु परु जो पर भाउ चएइ । सो णिउ सुदउ भावडउ णाणिहिं चरणु हवेइ ॥३०॥
(परमा०, द्वि० महा.)