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सप्तम अध्याय
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नित्य, ज्ञाननिधान, चिदानन्द ही सम्यक् ददर्शन है। यह केवल अनुभवगम्य है, शास्त्रों द्वारा इसको जाना नहीं जा सकता ।
वस्तुतः राग, द्वेष, ममता, मोह आदि भाव या प्रवृत्तियां सम्यक् दर्शन के प्रभाव और मिथ्या दर्शन के प्रभाव के कारण ही हैं। सम्यक् दर्शन के उदय होते ही आत्मा का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है, पर पदार्थों की अनित्यता का भान होने लगता है और कहने लगता है- मेरी ग्रात्मा स्वतन्त्र है, शाश्वत है और ज्ञान दर्शन स्वभावमय है। इसमें अन्य जितने भी भाव दिखलाई पड़ते हैं, वे सब संयोग निमिनिक है ।' सजीव, अजोव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष प्रादि तत्वों का यथार्थ दर्शन करता है। सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का यथार्थ श्रद्धान करता है । उसको तीनों मुड़ताएं और आठों मद समाप्त हो जाते हैं । एक प्रकार से स्वानुभूतिनी श्रद्धा ही सम्यक्दर्शन हैं। सम्यकदृष्टी में निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, प्रमु दृष्टि, उपबृंहण, सुस्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना आदि आठों गुण या अंग प्रकट हो जाते हैं। इसीलिए सम्यक दर्शन को कल्पवृक्ष, कामधेनु और चिनामणि कहा गया है। जिसके हाथ में चिन्तामणि है, धन में कामधेनु है और गृह में कल्पवृक्ष है, उसे अन्य पदार्थ की क्या अपेक्षा ? इसी प्रकार सम्यक दृष्टी को किस वस्तु का प्रभाव ?
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सम्यक् ज्ञान :
सम्यक् दर्शन से ही सम्यक् ज्ञान सम्भव है । पद्रव्य जिस रूप में स्थित हैं, उनके सम्यक् स्वरूप का परिज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है। बिना ज्ञान के मोक्ष कहाँ ? जिसकी बुद्धि ही भ्रान्त होगी, जो माया, मोह से ग्रस्त होगा अथवा जो
१. जाके परगास में न दीसै राग द्वेष मोह, श्रस्रव मिटत नहि बंध को तरस है 1 तिहूँ काल जामें प्रतिविम्बित अनंत रूप
हूँ अनंत सत्ता नंत सरम है | भाव श्रुतवान परवान जो विचारि वस्तु,
अनुभौ करें न जहां बानी को परस है । अतुल अखंड अविचल अविनासी धाम,
चिदानन्द नाम ऐसो सम्यकदरस है || १५ || ( नाटक समयसार, पृ० १५१ )
२. तीन मूढ़ताएँ - देवमूढ़, गुरुमूद, धर्ममूढ़ |
३.
श्राठ मद - जातिमद, कुलमद, धनमद, रूपमद, तामद, बलमद, विद्यामद, राजमद |
जं जह थक्क दव्बु जिय तं तह जागर जोजि । अप्पर भावडउ ण णु मुणिज हि सोजि ||२६||
४.
(परमात्म०, द्वि० महा०, पृ० १६४ )