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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
रत्नत्रय:
आत्मा और कर्म का सम्बन्ध विवेचन करते समय हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि कर्मों के आवरण के कारण ही आत्मा अपने स्वरूप को जान नहीं पाता और इसीलिए मोक्ष नहीं प्राप्त कर पाता। यदि कर्मों का विनाश हो जाय तो आत्मा का स्वरूप स्वतः स्पष्ट हो जाय। आत्म स्वरूप की जानकारी के लिए या कमों के जंजाल से छुटकारा पाने के लिए जब साधक प्रयत्नशील होता है तो गुरु उसका मार्ग निर्देशन करता है। गुरु का महत्व भी स्पष्ट हो चुका है। यह ज्ञातव्य है कि जैन दर्शन निश्चयनय से आत्मा को ही गुरु मानता है। अतएव मुमुक्ष के लिए यह आवश्यक है कि वह सर्वप्रथम विश्व व्यवस्था को समझे, जीव और अजीव पदार्थों की जानकारी प्राप्त करे, षडद्रव्यों की विशेताओं को जाने, जो वस्तु जैसी है उसको उसी रूप में देखे, उसी रूप में जाने और तदनुकूल आचरण करे। वस्तुओं का सम्यक् रूप में देखना ही सम्यक् दर्शन, जानना सम्यकज्ञान और आचरण सम्यकचरित्र कहलाता है। तीनों की उपलब्धि से ही आत्मा का विकास होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। हम यह कह सकते हैं कि रत्नत्रय ही आत्मा है और रत्नत्रय ही मोक्ष है।' कहने का तात्पर्य यह कि जो आत्मा आत्मविषय में ही रत होकर, यथार्थस्वरूप का अनुभव कर तद्रूप हो जाता है वह सम्यक् दृष्टी होता है, पुनः उस आत्मा को जानना ही सम्यक्ज्ञान होता है और तदनुकूल आचरण ही सम्यक्चरित्र होता है।
सम्यक् दर्शन :
द्रव्यों का यथार्थ दर्शन ही सम्यक् दर्शन है। द्रव्य व्यवस्था का विवेचन करते समय हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि यह विश्व षड्द्रव्य संयुक्त है। आत्मा चेतन द्रव्य है और शेष अचेतन या अजीव । सामान्य अवस्था में व्यक्ति इस भेद का दर्शन नहीं कर पाता है और जड़ चेतन का अन्तर स्पष्ट न होने से जीव शरीर के सुख-दुःख आत्मा के सुख-दुःख मानता रहता है । इसी मोह और अज्ञान के कारण जीव बन्धन मुक्त नहीं हो पाता। अतएव सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि जो वस्तु या द्रव्य जिस रूप में है, उसको उसी रूप में देखा जाय । यही सम्यक् दर्शन है। बनारसीदास ने कहा है कि जिसके प्रकाश में राग, द्वेष मोह आदि नहीं रहते, आश्रव का अभाव हो जाता है, बन्ध का त्रास मिट जाता है, समस्त पदार्थों के त्रिकालवर्ती अनन्तगुण पर्याय प्रतिबिम्बित होने लगते हैं और जो स्वयं अनन्त गुण पर्यायों की सत्ता सहित है, ऐसा अनुपम अखण्ड, अचल,
१. दरिशन वस्तु जु देखियइ, अरु जानियइ सु ज्ञान । __ चरण सुथिर ता तिह विषइ, तिहू मिलइ निरवान ॥५८।
(रूपचन्द-दोहा परमार्थ )