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________________ सप्तम अध्याय १८७ अनन्त काल तक कष्टों को सहन करता हुआ संसार में भटकता रहता है। वह पाप भी अच्छे कहे जा सकते हैं, जो जीव को कष्टों में डालकर उसे मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रेरित करते हैं और वह पुण्य भी अच्छे नहीं जो सांसारिक सुख प्रदान करके जीव को अन्तत: इसी लोक में फँसाए रखते हैं। योगीन्दु मुनि कहते हैं कि पुण्य से विभव होता है, विभव से मद मद से मतिमोह, मतिमोह से पाप । अतएव मुझे पुण्य न प्राप्त हो। यदि जीव पुण्य ही पुण्य करता रहे, किन्तु आत्मतत्व को न जान सके तो सिद्धि सुख को नहीं प्राप्त कर सकता और पुनः पुनः संसार में भ्रमण करता रहता है। पाप को पाप तो सभी जानते हैं, किन्तु पुण्य को पाप कोई नहीं कहता। जो पुण्य को भी पाप कहे, ऐसा विरला पण्डित कोई ही होता है। वस्तुतः दोनों ही श्रृङ्खलाएँ हैं । देवसेन का कहना है कि पुण्य और पाप दोनों जिसके मन में सम नहीं है उसे भव सिन्धु दुस्तर है । क्या कनक या लोहे की निगड़ प्राणी का पाद बन्धन नहीं करती ? इस संसार के निर्माण और विकास में पुण्य पाप का विशेष हाथ रहता है। यही जगत के बीज हैं। जीव इन्हीं के कारण जन्म-मरण और सुख-दुख के चक्कर में पड़ा रहता है । जो दोनों को त्याग देता है, वह अजर और अमर होकर अनन्त सुख का उपभोग करता है। भैया भगवतीदास ने 'पुण्य पाप जगमूल पचीसी' में लिखा है कि सभी जीव पुण्य पाप के वश में रहकर संसार में बसते हैं, किन्तु जिन्होंने इनको १. जो गवि माणइ जीव समुपुराणु वि पाउ वि दोइ । सो चिरु दुक्खु सइन्तु जिय मोहिं हिंडइ लोइ || ५५|| (परमात्म०, द्वि० महा०, पृ० १६५ ) मत्रो मएण मइ मोहो । २. पुण्णेम होइ विहत्रो विहवे मइ मोहेमय पावंता पुण्ण श्रम्ह मा होउ || ६०|| (परमा०, द्वि० महा०, १०२०१ ) ३. जो पाउ वि सो पाउ मुणि सव्वुर को त्रि मुणेइ । जो पुराणु वि पाउ वि भणइ सो बुहः (?) को वि हवेइ ||७१॥ ( योगसार, पृ० ३८६ ) ४. पुरणु पाउ जसु मणि ण समु तसु दुत्तरु भवसिंधु । कणयोइणियलाई जियहु किं ण कुणहि पयबंधु || २११ || ५. ( सावयधम्म दोहा ) पुण्य पाप जग बीज हैं, याही ते विस्तार । जन्म मरन सुख दुख सबै "भैया" सत्र संसार ||३०| yer पाप को त्याग, जो भए शुद्ध भगवान | अजरामर पदवी लई, सुख अनंत जिहं थान |३१|| ( भैया भगवतीदास - ब्रह्म विलास, अनादिवतीसिका, पृ० २२० )
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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