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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद
नहीं होता । इसीलिए वे अन्य की चिन्ता न करते हुए, केवल अपने 'प्यारे' के दर्शन के लिए लालायित हैं, क्योंकि वही गंग-तरंग में बहते हुए का उद्धार कर सकते हैं
'वेद पुरान कतेब कुरान में, आगम निगम कछू न लही री । मेरे तो तू राजी चाहिए, और के बोल मैं लाख सहूँरी । आनन्दघन बेगें मिलो प्यारे, नाहि तो गंग तरंग बहूँरी ॥ ४४ ॥ ( श्रानन्दघन बहोत्तरी, पृ० ३७६ )
पुण्य-पाप :
मुमुक्ष के लिए पुण्य-पाप दोनों का परित्याग आवश्यक है । साधारण जन यह समझते हैं कि पाप कर्म हीन होते हैं और पुण्य कर्म श्रेष्ठ । अतएव पुण्य संचय का प्रयास करना चाहिए। किन्तु मोक्ष के लिए अथवा आत्मा के परमात्मोन्मुख होने के लिए कर्मों का विनाश आवश्यक है । कर्म-क्षय पुण्यपाप दोनों की समाप्ति से सम्भव है । जब तक पुण्य कर्म भी बने रहेंगे, आत्मा अपने लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकता, भले ही उसको कुछ सुख मिल जाय । पाप पुण्य दोनों ही बन्धन के हेतु हैं । जिसका बन्ध विशुद्ध भावों से होता है, वह पुण्य है और जिसका बन्ध संलिष्ट भावों से होता है, वह पाप है । व्रत, संयम, शील, दान आदि पुण्य बन्ध के हेतु हैं और चित्त की कलुषता, विषयों की लोलुपता, परिग्रह, भय, मैथुन, असंयम आदि संश्लिष्ट भाव पापबन्ध के हेतु हैं । अतएव दोनों मोक्ष मार्ग में बाधक हैं । यद्यपि दोनों के कारण, रस, स्वभाव और फल में अन्तर है, एक प्रिय है, और दूसरा अप्रिय तथापि दोनों ही जीव को संसार में संसरण कराते रहते हैं । एक शुभोपयोग है, दूसरा अशुभोपयोग; शुद्धोपयोग कोई भी नहीं अतएव दोनों ही हे हैं । आत्मा के विभाव हैं, स्वभाव नहीं। दोनों ही पुद्गलजनित हैं, श्रात्मजनित नहीं ।
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इसीलिए सभी मुनियों जो जीव पुण्य और पाप दोनों को
पाप पुण्य दोनों के त्याग पर जोर दिया है । समान नहीं मानता, वह मोह से मोहित हुआ
घरम व्योहार ग्रंथ ताके पढ़े श्राम के तत्व को निमित्त कहूँ रंच पायो,
तौलों तोहि ग्रंथनि में ऐसे के बतायो है । जैसे रस व्यञ्जन में करछी फिरै सदीव,
ताह के अनेक भेद,
निपुण प्रसिद्ध तोहि गायो है ॥
मूढ़ता स्वभाव सों न स्वाद कछू पायो है ॥ २२ ॥ ( ब्रह्मविलास, पुण्य पचीसिका, पृ० ७
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