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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद
त्याग दिया है, वे सिद्धों के समान हैं। बनारसीदास ने 'नाटक समयसार' ( पुण्य पाप एकत्व द्वार ) में दोनों के स्वरूप और फल पर विस्तार से विचार किया है। उनके अनुसार दोनों ही पुद्गल के कटु मधुर स्वाद हैं, कर्म वृद्धि के कारण हैं, जगजाल में फँसाने के हेतु हैं, अतएव दोनों के विनाश से ही मोक्ष मार्ग का दर्शन सम्भव है । दोनों को एकता को उन्होंने एक उदाहरण से सिद्ध किया है । उनका कहना है कि जिस प्रकार एक चण्डालिनी के दो पुत्र पैदा हों । उनमें से एक का पालन वह स्वयं करे और दूसरे को पोषणार्ण ब्राह्मण को दे दे । ब्राह्मण पोषित बालक मद्य मांस का त्याग करने से 'ब्राह्मण' कहलाएगा और चण्डाल पोषित बालक मांस मद्य के सेवन से 'चाण्डाल' कहा जाएगा। उसी प्रकार एक ही वेदनीय कर्म के दो पुत्र हैं - एक पाप और दूसरा पुण्य कहा जाता है । दोनों ही कर्म बन्ध रूप हैं, अतएव ज्ञानी दोनों में से किसी की भी अभिलाषा नहीं करते हैं ।
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गुरु का महत्व :
मध्यकालीन सन्तों और साधकों ने गुरु का महत्व निर्विवाद और अविकल रूप से स्वीकार किया है । गुरु को कृपा बिना साधक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता । शास्त्रों में उपाय अवश्य लिखा है, उससे प्राथमिक ज्ञान भी हो जाता है, किन्तु व्यवहारतः उस मार्ग पर चलते समय उचित अनुचित और सत् असत् का भेद दिखाने का कार्य गुरु का ही होता है । अतएव साधक को सर्व प्रथम श्रेष्ठ गुरु की खोज करके, उसका शिष्य बन जाना अनिवार्य है । यह गुरु ही बाधाओं और विघ्नों का निवारण करता हुआ शिष्य को उस मार्ग पर ले जाता है, जिस पर वह स्वयं जा चुका है। किन्तु गुरु भी ऐसा होना चाहिए, जिसने स्वयं कामनाओं और वासनाओं पर नियन्त्रण प्राप्त कर
१. पुण्य पाप वश जीव सब बसत जगत में श्रान । 'भैया' इनते भिन्न जो, ते सब सिद्ध समान ||२७|| ( ब्रह्म०, पृ० २०० )
२. जैसे काढू चण्डाली जुगल पुत्र जन तिनि,
एक दीयो बांभन के एक घर राख्यो है । बांभन कहायो तिनि मद्य मांस त्याग कीनो,
चंडाल कहायो तिनि मद्यमांस चाख्यौ है ||
तैसे एक वेदनी करम के जुगुल पुत्र,
एक पाप एक पुन्न नाम भिन्न भाख्यौ है ।
दुहूँ मांहि दौर धूप दोऊ कर्मबंध रूप,
याने ग्यानवंत नहि कोउ अभिलाख्यौ है || ३ | ( नाटकसमयसार, पृ० १२३ )