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योगीन्दु मुनि, मुनि रामसिंह आदि रहस्यवादी कवियों में यह स्वर अधिक तीव्र और प्रबल हो उठा। इन कवियों ने ठीक सिद्धों और सन्तों के समान कठोर वाणी में व्रत, तप, जप का विरोध किया, तीर्थाटन, मन्दिर आदि में देव पूजा को फलहीन बताया और केश लुञ्च, लिङ्ग धारण आदि को मात्र आडम्बर और दिखावा घोषित किया। योगीन्दु मुनि ने कहा कि एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में भ्रमण करने से मोक्ष नहीं मिल जाता । तीर्थ भ्रमण करना मुनीश्वरों का लक्षण नहीं, वह तो संसारी पुरुषों का दिखावा मात्र है । यही नहीं, जब तक जीव गुरू प्रसाद से आत्मदेव को नहीं जान लेता, तभी तक कुतीर्थों
भ्रमण करता है और तभी तक वह धूर्तता करता है । देवालय में ईश्वर है ही नहीं, वह तो देह- देवालय में विराजमान है, अतएव ईट पत्थरों से निर्मित देवालय में उसे खोजना मूखतापूर्ण और हास्यास्पद है ।'
जब यह स्पष्ट हो गया कि आत्मा ही परमात्मा है और उसका वास शरीर में है तो फिर देवालय जाने या तीर्थ भ्रमण की आवश्यकता ही क्या ? मुनि रामसिंह इसीलिए ऐसे व्यक्तियों का विरोध करते हैं जो पत्ती. पानी, द्रव्य या तिल द्वारा मूर्तिपूजा करके मोक्ष की कामना करते हैं । ये सभी पदार्थ तो अपने ही समान हैं, फिर इनमें मोक्ष कैसे मिल जाएगा ? उनका कहना है कि हे जोगी ! पत्ती मत तोड़ और फलों पर भी हाथ मत बढ़ा. जिसके कारण तू इन्हें तोड़ता है, उसी शिव को यहाँ चढ़ा दे क्योंकि देवालय में पाषाण है, तीर्थ में जल है और सभी पोथियों में काव्य है, जो वस्तु पुष्पित, पल्लवित और फलित दिखाई पड़ती है, वह सबकी सब नष्ट हो जाएगी। एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ का भ्रमण करने वाले एक प्रकार से निष्फल यात्रा ही करते हैं । तीर्थ जल से शरीर शुद्धि भले ही हो जाय, चमड़ा भले ही स्वच्छ हो जाए, किन्तु इस बाह्य जल से आभ्यन्तर मल नहीं छूट सकता और जब तक मन ही मलिन है, तब तक काया शोधन में क्या लाभ ? जब तक मन विकारयुक्त है, तब तक किसी भी उपाय से सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती, शरीर में ही स्थित आत्मदेव का दर्शन नहीं हो सकता, जैसे मेघाच्छन्न आकाश में सूर्य का दर्शन
१. तित्थई तित्थु भमंता मूढहं मोक्ख ण होइ ।
णा विवजिउ जेण जिय मुणिवरु होइ ण सोइ ॥ ८५ ॥
२. पत्तिय पाणिउ दव्भ तिल सब
( परमात्म०, द्वि० महा०, पृ० २२७ ) जाणि सवण्णु । जं पुणु मोक्खहं जाइवउ तं कारणु कुइ श्रणु || १५६ || पत्तिय तोडि म जोइया फलहिं जि हत्थु म वाहि ।
कारण तोडेहि तुहुँ सोउ पत्थु चडाहि || १६०॥ देवलि पाहणु तित्थि जलु पुत्थई सम्वई कबु | वत्थु जु दीसह कुसुमियउ इंधय होमइ सब्बु || १६१|| तित्थई तित्थ भमेहि बढ़ घोयउ चम्मु जलेण एहु मणु किम घोएसि तुहुँ मइलउ पावलेण || १६३ ।।
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(दोहापाहुड)