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सतम अध्याय
कहा मुडाए मुंड, बस कहा मट्टका। कहा नहाए गंग, नदी के तट्टका । कहा कथा के मुने. वचन के पट्टका । जो बस नाही तोहि, पसेरी अट्ठका ॥२६॥
ब्रह्म विनाम, मनबत्तीसी, पृ. २५७)
बाह्य अनुष्ठान :
भारतीय चिन्ताधारा के प्रारम्भ मे ही दो प्रवृनियां प्रधान रूप से पाई जाती हैं, जिसमें एक कर्मकाण्डवहल एवं बाह्य आचार की समर्थक रही है और दूसरी बाह्य अनुष्ठान की अपेक्षा आन्तरिक मुद्धि में विश्वास करती रही है। वैदिक यज्ञ याजनों और हिसक बत्तियों का विरंध उपनिषदों द्वारा हा था और हिंसा और पापण्ड आदि के प्रतिरोधस्वरूप ही जैन और बौद्ध धर्म अस्तित्व में आए थे। किन्तु आगे चन कर यही सम्प्रदाय बाह्य आडम्बर और पाखण्ड के शिकार हो गए तथा दावा-प्रशाखाओं में विभक्त होकर धर्म के बाह्य स्वरूप पर ही जोर देते रहे। चित्तशुद्धि की अपेक्षा बाह्य क्रियाओं को हो महत्व मिलता रहा। परिणामत: सभी धर्मों और सम्प्रदायों में आडम्बर और दिखावे को ही प्रधानता हा गई। फलत: ७वीं-८वीं शताब्दी के प्रत्येक सम्प्रदाय में ऐसे साधकों का आविर्भाव होता है, जो बाह्य आचार की अपेक्षा चित्त की शुद्धि पर ही जोर देते हैं, मन्दिर मस्जिद में जाने की अपेक्षा देहदेवालय में ही परमात्मा को खोजने की बात करते हैं और शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अन्तर्ज्ञान या स्वानुभूति पर जोर देते हैं। आठवीं शताब्दी के सिद्ध साहित्य से लेकर हिन्दी के सन्त कवियों तक यह विचारधारा अप्रतिहत गति से प्रवाहित होती हुई देखी जा सकती है। हम इसका विस्तृत अध्ययन आगे के अध्याय में करेंगे। यहाँ केवल इतना कह देना अलं समझते हैं कि सातवीं शताब्दी के पश्चात से सिद्धों, नाथों, जैन मुनियों और आगे चलकर कबीर आदि सन्तों ने बाह्य क्रियाओं का विरोध एक स्वर से किया। कुछ आचार्यों ने कबीर के साहित्य में हिन्दू धर्म के विधि-विधानों का खण्डन देखकर उन पर यह प्रारोप लगाया है कि वे प्रच्छन्न रूप से मुस्लिम धर्म का प्रचार करना चाहते थे और हिन्द धर्म के विरोधी थे। किन्तु कवीर के पूर्ववर्ती साधकों के साहित्य के प्रकाश में आ जाने से यह स्पष्ट हो गया है कि कबीरदास में कोई संकीर्ण प्रवत्ति नहीं थी। उन्होंने जिस सत्य का अनुभव किया था, उसे अपनी अटपटी, किन्तु सीधी और सरल भाषा में व्यक्त कर दिया था और बा ह्याडम्बर का खण्डन कबीर ने ही नहीं किया था, अपितु उनके पूर्ववर्ती साधकों द्वारा अधिक खरी और चोट करने वाली भाषा में बाह्य विधानों का विरोध किया गया था।
जैन मुनियों में भी यही विचार सरणि अन्य सन्तों के समान ही देखी जा सकती है। वैसे तो कुन्दकुन्दाचार्य आदि जैन विचारकों ने ही केवल बाह्य आचार का विरोध किया था, किन्तु आठवीं शताब्दी और उसके बाद से