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मन के नियन्त्रण से साधक अपने लक्ष्य में सफल हो जाता है । विषय कषायों से जब मन विरत हो जाता है तो अन्य आयास की आवश्यकता नहीं रहा जाती । जीव मल या विकारहीन हो जाता है और निरञ्जन देव का अनुभव करने लगता है । इसीलिए करभ को जीतने का प्रयत्न करना चाहिए, जिस पर चढ़ कर श्रेष्ठ मुनि गमनागमन से मुक्त हो जाते हैं।' फिर किसी तन्त्र मन्त्र या बाह्य अनुष्ठान की अवश्यकता हा नहीं रह जाती । किन्तु जब तक मन रूपी दर्पण मलिन है, तब तक अस्थिर जल में मुख के समान आत्मदेव का दर्शन कैसे सम्भव है ? भैया भगवतीदास 'मन बत्तीसी' में कहते हैं कि मैंने इस संसार में मन से अधिक शक्तिशाली दूसरा नहीं देखा। तीनों लोकों में किसी भी स्थान पर इसको जाने में विलम्ब नहीं लगता । मन दासों का दास है और सम्राटों का भी सम्राट् है । मन की कहानी अनन्त है । मन अतीव चपल है, विविध कर्मों का कर्ता है । अतएव मन को बिना जीते मुक्ति कैसे सम्भव है ? मन इन्द्रियों का राजा है, उसे जो पराजित कर दे उसे ही मोक्ष सुख प्राप्त हो सकता है, इसमें जरा भी संदेह नहीं, क्योंकि जब मन परमात्मा के ध्यान में लीन हो जाता है, तब इन्द्रियाँ निराश हो जाती हैं और ग्रात्मा या ब्रह्म अपना प्रकाश करने लगता है । इसलिए जब तक मन वश में न हो जाय, तब तक मूंड-मुंड़ाने से कोई लाभ नहीं, मन्दिर में रहना अलाभकर है और गंगा स्नान फलदायक नहीं हो सकता :
'मन सो बली न दूसरो, तीन लोक में फिरत ही
देख्यों इहि संसार | जात न लागै बार ||८|| मन दासन को दास है, मन भूपन को भूप । मन सब बातनि योग्य है, मन की कथा अनूप ॥ ॥ मन चंचल मन चपल अति, मन बहु कर्म कमाय ।
मन जीते बिन आतमा, मुक्ति कहो किम पाय || १२ ||
मन इन्द्रिनि को भूप है, ताहि करै जो जेर । सो सुख पावै मुक्ति के, यामे कछू न फेर ||१४|| जब मन गूंथो ध्यान में, इन्द्रिय भई निराश । तब इह आतम ब्रह्म ने, कीने निज परकाश ||१५||
१. अज्जु जिणिज्जइ करहुलउ लइ पई देविणु लक्खु । जित्थु चडे विणु परममुणि सव्व गया गय मोक्खु ॥ १११ ॥
(पडदोहा )
२. दरपन काई अथिर व मुखदीमे नहिं कोय | मन निरमल थिरविन भए, आप दरम क्यों होय ॥२६॥
( द्यानतराय - धर्म विलास --अध्यात्मपंचासिका, पृ० १६१ )