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सप्तम अध्याय
मुखों में भटकता रहता है। अनाव इमको वा में करी। इसके वशीभूत होने पर अन्य इन्द्रियाँ भी आपके अधीन हो जायेंगी. क्योंकि वृक्ष की जड़ के नष्ट हो जाने पर पत्ते निश्चय ही भूख जाते हैं।'
जैन प्राचार्यों ने प्राय: मन को कभकी उपमा दी है। मन रूपी करभ को विपय-वलिही रुचिकर होती है। वैसे तो कबीर आदि संतों में भी मन-करभ कारूपक मिल जाता है, किन्तु जैन कवियों ने उसका अत्यधिक प्रयोग किया है। मुनि गसिंह ने दोत्रापाड़ में स्थान-स्थान पर मन को करभ कहा है। इसी आधार पर डाल हीगलाल जैन ने उनको राजमन का निवासी होने का अनुमान कर लिया है। किन्तु केवल मुनि रामसिंह ने ही नहीं, अपितु अनेक जैन और जैनेतर कवियों में इस प्रकार का रूप मिल जाता है। योगीन्द्र मुनि ने परमात्मप्रकाग' में 'मन' को करभ कहा है। भगवतीदाम और ब्रह्मदीप नामक हिन्दी जैन कवियों ने मनन्द्रा ' नामक स्वतन्त्र ग्रन्यों की रचना ही की है, जिनमें मन रूपी करभ को विपय वेलिन चरने का उपदेश दिया गया है। ब्रह्मदोष कहते हैं कि हे मन रूपी करभ ! तु भव वन में विचरण मत कर क्योकि वहां अनेक विष बलियां लगी हुई हैं, उनको खाने से तुझे बड़ा हो कष्ट होगा। इसी भव बन के कारण तुझे नाना योनियों में भ्रमण करना पडना है। मुनि रामसिंह कहते हैं कि रे मन रूपी करभ । इन्द्रिय विषयों के सूख मे रति मत कर, इनसे शाश्वत सुख नहीं मिलता है, अतएव उनको अतिशीघ्र ही छोड़। दूसरे स्थान पर वह मन को हाथी की उमा देते हए कहते हैं कि इम मन रूपी हाथी को विध्य का ओर जाने से रोको, क्योंकि वहां जाकर वह शील रूपी वन को भग कर देगा और फिर संसार में पड़ेगा।
१. पचहं णायकु वभिकरहु जेग हनि वाम अराण । मूल विगहा तरु-वरह अवनइ मुकाहिं पराग । १४०॥
(परम:०, द्वि० मह, पृ०२८५) २. मन करहा भव बनि मा चग्इ,
तदि विप वररी बहून । नंह चरंतहं बहु दुम्बुमाउ,
तब जानहि गी मीत || मन० १ ॥ अरे पंच पयारह त हलिउ,
नग्य निगोद मझारी रे। तिरिय तने दुख ते महे,
नर मुर जोनि मझारी रे ।। मन० "२ ॥ (मन करहारस) ३. अरे मगा कर ह म रइ करहि इंदिपविमः मुहेण ।
मुक्खु गिरंतर जेहि गवि मुच्चहि ते वि स्वणेण ||६|| अम्मिय इहु मणु हस्थिया विझहं जंतउ वारि ।