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नहीं होता अथवा मलिन दर्पण में सूख नहीं दियाई पड़ता जिस पुरुष के चित्त में मृग के समान नेत्री महामादि के वश में है, उसे शुद्धात्मा का दर्शन कैसे हो सकता है ? कही एक म्यान में दो तलवारें आ सकती हैं ? रागादि में श्री परमात्मा का निवास रहता है, जैसे मानसरोवर में हम अन्य स्थानों में उसे कहीं भी योजना व्यर्थ है। वह न देवालय में है. न पापानि मेन मे और न चिन में अक्षय, निरामय, निरंजन ज्ञानमय मित्र ममचिन में ही
सप्तम अध्याय
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यि मणिम्मिलि गायिहं शिवसइ देउ अाइ | हंसा सरवरि लीगु जिय महु एहउ पडिहाइ। १२२ ॥ देउ र देउले वि सिलर एवि तिप्पइ गवि चित्ति | अरिंज याम सिंह सम चित्ति । १२३॥
जब विनसम हो जाता है और यह समस्त है, मन परमेश्वर में मिल जाता है और परने समरस हो जाते हैं, एकमेक हो जाते है तो और कौन पूजा करे साय साकी भाव रह ही नहीं जाता, फिर बाह्य विधान का है ? जीव परम आनन्द में विचरण करने लगता है। उस स्थिति में कौन समाधि करे, कौन अर्चन पूजन करे का भेद कौन करे किसके साथ मैत्री करे और किसके साथ कलह करे. सर्वत्र आत्मा ही तो दिखाई पड़ता है। आत्मा ब्रह्ममय हो जाता है अथवा यह कह सकते हैं कि विश्व ही ब्रह्ममय दीखने लगता है।
रागों का परित्याग कर देता मन से मिल जाता है. दोनों चिर किसकी पूजा की जाए या अवस्था में द्वैत प्रश्न ही कहाँ शेष रह जाता
किन्तु जब तक मन शुद्ध नहीं है, शील कार्यकारी नहीं हो सकने
१. जसु हरिणच्छी हियवसइ तमु त्रिभुविवार । एक कहिं केम समति बढ वे खण्डा पडियार । १२४॥
२. मशु मिलियउ परमेसरहं यहि [वि] समरति
प्रत, तप, जप निरर्थक है, संयम और भाव शुद्धि के बिना व्रत, तप आदि
४.
(परमा० प्र० महा० ०१२२) परमेतरु विमन्स
पुत्र चामि ||१६||
(परमात्म०प्र० महा० ० १२५ ) ३. को सुसमाहि कर को चंद को पंच हल सहि कलहु केण समागउ, जहिं कहिं जोवउ तहि अप्पा ||४०|| ( योगसार, पृ० ३७९ )
व तव संजन सीद जिय ए सव्वई कयत्थु | जाग जाइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवितु ||३१||
( योगवार )