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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद है और काल द्रव्य शुभ अशुभ परिणामों का सहायी बन जाता है। परिणामतः जीव अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करते हुए, नाना योनियों में भ्रमण करता रहता है। अतएव परमात्म पद की अनुभूति के लिए अथवा मोक्ष प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि जीव सभी द्रव्यों के वास्तविक स्वरूप को समझे और अपने रूप और स्वभाव को जानकर सच्चे मार्ग को ग्रहण करे। द्रव्यों के रहस्य को जानना अथवा ब्रह्माण्ड की स्थिति का सच्चा परिज्ञान ही सम्यज्ञान होता है। इसीलिए योगीन्दु मुनि कहते हैं कि - हे जीव ! परद्रव्यों के स्वभाव को प्रतीन्द्रिय सुख में विघ्नकारक समझकर, उनसे मुक्त हो, शीघ्र ही मोक्ष के मार्ग में लग जाओ:
'दुक्खहं कारणु मुणिवि जिय, दव्वहं एहु सहाउ। होयवि मोक्खहं मग्गि लहु, गम्मिज्जइ पर लाउ ॥ २७ ॥
(परमात्मप्रकाश, द्वि० महा०, पृ० १५६)