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पञ्चम अध्याय
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कतिपय अन्य दर्शनों में भी द्रव्यों को मान्यता दी गई है, किन्तु उनकी संख्या और स्वरूप में अन्तर रहा है। वैशेषिक दर्शन पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन आदि नौ द्रव्य मानता है, किन्तु इनको पद्रव्यों में ही अन्तर्भूत किया जा सकता है।'
ये छहो द्रव्य अनादि हैं और एक दूसरे से किसी न किसी प्रकार का सम्पर्क बनाये हुए हैं । द्रव्यों के अनादि स्वभाव को भैया भगवतीदास ने उदाहरण देते हुए सिद्ध किया है। उनका कहना है कि अन्न को ज्ञान नहीं होता तथापि वह बिना ऋतु के नहीं पैदा हो सकता, यही उसका अनादि स्वभाव है। बन्य वृक्ष स्वतः पुष्पों, फलों को समय पर धारण कर लेते हैं, यही उनकी स्वभावजन्य विशेषता है। सद्यजात शिशु स्वत: मातृस्तन पीने लगता है, यह अनादि स्वभाव का ही लक्षण है। सर्प के मुख में विष कौन भर देता है ? कहने का तात्पर्य यह कि पृथ्वी, पवन, जल, अग्नि, आकाश आदि अनादि काल से वर्तमान रहे हैं।'
इन षड द्रव्यों में जीव, पुद्गल और काल को छोड़ कर शेप द्रव्य अपने प्रदेशों से अखण्डित हैं। जीवद्रव्य अनन्त हैं, पुद्गल द्रव्यों की संख्या उससे भी अधिक है, काल भी असंख्य हैं। धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य एक एक हैं और लोकव्यापी हैं । जीव और पुद्गल गतिशील हैं, शेष स्थायी हैं। आकाश द्रव्य एक ही है, किन्तु वह अनन्तप्रदेशी है। सभी द्रव्य लोकाकाश में स्थित हैं । अतएव लोकाकाश प्राधार हुआ, शेष आधेय। यद्यपि ये द्रव्य एक ही क्षेत्र में वर्तमान हैं तथापि अपने अपने गुणों में ही निवास करते हैं। व्यवहारनय से अवश्य दूसरे का प्रभाव ग्रहण कर लेते हैं, किन्तु निश्चयनय से प्रत्येक द्रव्य दूसरे से अप्रभावित रहता है। ये द्रव्य जीवों के अपने अपने कार्य को उत्पन्न करते रहते हैं अर्थात् पुद्गल द्रव्य, आत्म स्वभाव के प्रतिकूल जीवों में मिथ्यात्व, अव्रत, कपाय और रागद्वेषादि के भाव भरता रहता है, धर्म द्रव्य गति में सहायता पहुंचाता रहता है, अधर्म द्रव्य स्थिति सहकारी का कार्य करता है, आकाश द्रव्य अवकाश देता
१. विस्तार के लिए देखिए-श्री महेन्द्रकुमार-जैन दर्शन, पृ. १६४ । २. कहा ज्ञान है नाज पै, ऋतु बिनु उपजै नाहिं ।
सबाह अनादि स्वरूप हैं, समृझ देख मनमाहिं ।। १२ ।। को बोवत बन बृक्ष को, को सींचत नित जाय । फलफूलनि कर लहलहै, यहे अनादि स्वभाय ।। १४ ।। कौन सिखावत बाल को, लागत मा तन धाय । क्षुद्धित पेट भरे सदा, यहे अनादि स्वभाय ॥ २१ ॥ कौन सांप के बदन में, विष उपजावत वीर । यहै अनादि स्वभाय है, देखो गुण गम्भीर ।। २३ ॥ पृथ्वी पानी पौन पुनि, अग्नि अन्न श्राकास । है अनादि इहि जगत में, सर्वद्रव्य को वास ।। २५ ।। -भैया भगवतीदास-ब्रह्म विलास (अनादि बतीसिका) पृ० २१८, १६ ।