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षष्ठ अध्याय जैन कवियों द्वारा आत्मा का स्वरूप कथन
आत्मा का स्वरूप:
विश्व के सभी दर्शनों और विभिन्न सम्प्रदायों के साधकों द्वारा आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में पर्याप्त चिन्तन मनन किया गया है और अनेक प्रकार के निष्कर्ष निकाले गए हैं। वस्तुतः अलख और अरूप तत्व के सम्बन्ध में कोई भा विचारक या साधक 'इदमित्थम्' का द वा नहीं कर सकता। जो जिस रूप का अनुभव करता है उसी प्रकार उसको अभिव्यक्त कर देता है। इसीलिए आत्मा के स्वरूप और आकार के विषय में अनेक प्रकार के मत और सिद्धान्त देखने को मिल जाते हैं। यदि एक दर्शन ,आत्मा को सर्वव्यापक मानता है तो दूसरा 'जड़ की संज्ञा देता है, यदि तीसरे मत में आत्मा 'देहप्रमाण' है तो चौथे मत से वह शून्य है । वेदान्त, न्याय और मीमांसा में आत्मा को सर्वव्यापी स्वीकार किया गया है। सांख्य दर्शन जोव को जड़ मानता है। बौद्ध विचारकों ने आत्मा को शून्य माना है। अभिधर्म-कोष में प्राचार्य वसुबन्धु ने कहा है कि आत्मा नाम का कोई नित्य ध्र व, अविपरिणाम स्वभाव वाला पदार्थ नहीं है। कर्म से तथा अविद्या आदि क्लेषों से अभिसंस्कृत पंचस्कन्ध (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान) मात्र ही पूर्व भव सन्तति क्रम से एक प्रदीप से दूसरे प्रदीप के जलने की तरह गर्भ में प्रवेश पाता है :
'नात्मास्ति, स्कन्धमात्रं तु कर्मक्लेशाभिसंस्कृतम्
अन्तराभव सन्तत्या कुक्षिभेति प्रदीपवत् ।। ३-१८ ।। उपनिषद् साहित्य में आत्म-तत्व पर विस्तार से विचार किया गया है और उसे निलिप्त, निर्विकार, शुद्ध तत्व घोषित किया है। वह मन, वाणी का