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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
उसका जो मोह और ममत्व है, वह क्षणिक है। यह चेतन-बनजारा काया-नगरी में निवास करता है।
'श्री चूनरी' आपकी सुन्दर रचना है। इसकी एक हस्तलितख प्रति स्थान मंगोरा, जिला मथुरा निवासी पं० बल्लभराम जी के पास सुरक्षित है। कबीर ने काया को चादर कहा और भगवतीदास ने काया-चूनरी का रूपक बाँधा।
कवि चुनरी को जिनवर के रंग में रंगने के लिए लालायित है, जिससे पात्मा-सुन्दरी प्रियतम शिव को प्राप्त कर सके। सम्यकत्व का वस्त्र धारण कर, ज्ञान-सलिल के द्वारा पचीसो प्रकार के मल धोकर, सभी गुणों से मंडित सुन्दरी शिव से ब्याह करती है और तब उसके सामने जीवन-मरण का प्रश्न हो नहीं उठता :
तुम्ह जिनवर देहि रंग इ हो विनवड़ सषी पिया सिव सुन्दरी। अरुण अनुपम माल हो मेरी भव जल तारण चूंनड़ी ॥२॥ समकित वस्त्र विसाहिले ज्ञान सलिल सग सेइ हो। मल पचीस उतारि के, दिढिपन साजी देइ जी ॥ मेरी०३।। बड़ जानी गणधर तहाँ भले परोसण हार हो। . सिव सुन्दरी के व्याह कौं सरस भई ज्यौंणार हो । मेरी० ३०॥ . मुक्ति रमणि रंग स्यौ रमैं, वसु गुण मंडित सेइ हो। अनन्त चतुष्टय सुष धणां जन्म मरण न ह होइ हो ॥३२॥
(श्री चूनरी) भगवतीदास ने यह रचना सं० १६८० में वृडिए नामक स्थान में पूर्ण की थी। उस समय मुगल बादशाह जहाँगीर शासन कर रहा था।
सहर सुहावै बूडीए भणत भगौतीदास हो।। पढ़े गुणै सो हदै धरइ जे गावै नर नारि हो । मेरी० ३३ ॥ लिपै लिपावै चतुर ते उतरे भव पार हो । मेरी० ३४ ॥ राजबली जहाँगीर के फिरड जगत तस ऑण हो। शशि रस वसु विंदा धरहु संवत सुनहु सुजाण हो । मेरी० ३५ ॥
|| इति श्री चूनरी समाप्त ||
१. चतुर बनजारे हो। नमणु करहु जिणराइ,
सारट पद सिर ध्याइ, ए मेरे नाइक को। चतुर बनजारे हो। काया नगर मंझारि, चंतनु बन जाग रहइ मेरे नारक हो। मुमति कुर्मात दी नारि, तिहि मंग,
गेहु अधिक गहर, मेरे नाइक हो ॥२॥ २. खोज रिपोट ( १६३८-४०)।