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तृतीय अध्याय
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भगवान वर्धमान के मन्दिर में विक्रम सं०१७०० में अगहन शुक्ला पंचमी सोमवार के दिन पूर्ण किया था:
'सतरह सय संवद तीद तहा विक्कमराय महिप्पए। अगहण सिय पंचमि सोमदिणे, पुण्ण ठियउ अवियप्पर ॥१॥ ससिलेहा सुय बन्धु जे अहिउ कठिण जो आसि । महुरी भासउ देसकरि भणि उ भगौतीदासि । ५॥
(मृगांक लेवा चरित प्रशस्ति) आपने सं० १६८० के गुटके में जहाँगीर के शासन का विवरण दिया है और 'अनेकार्थनाममाला' को शाहजहाँ के शासनकाल में लिखा था। इससे स्पष्ट है कि आपने दो मुगल बादशाहों-जहाँगीर (मं० १६६२-१६८४) और शाहजहाँ (सं० १६८५-१७१५) के शासन को प्रत्यक्ष रूप से देखा था। आपकी रचनाओं से यह भी विदित होता है कि आप माहेन्द्रसेन के शिष्य और अग्रवाल दिगम्बर जैनी थे। पं० हीरानन्द ने मं०१७११ में 'पंचास्तिकाय' का हिन्दी पद्यानुवाद करते समय आपका उल्लेख ज्ञाता भगवतीदास नाम से किया है। इससे आपके सं० १७११ तक विद्यमान रहने की सूचना मिल जाती है :
'तहाँ भगौतीदास है ज्ञाता'
(पंचन्तिक य-प्रशस्ति ।।१०।। ) आपने सामान्य रूप से विविध विपयों पर और विशेष रूप से जैन धर्म के सम्बन्ध में काव्य रचना की थी। किन्तु अापकी एकाध रचना अध्यात्म सम्बन्धी भी है और वह अन्य जैन रहस्यवादी कवियों की कोटि की है। 'योगीरासा' आपका विशुद्ध रहस्यवादी काव्य है, जिसमें सच्चे योगी के लक्षण और स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। एक स्थान पर आप कहते हैं :
पेषहु हो! तुम पेपहु भाई, जोगी जगमहिं सोई । घट घट अन्तर वसइ चिदानन्दु अलखु न लपई जाई ।। भव बन भलि रहयौ भ्रमिरावल, सिवपर सधि विसराई। परम अतिंदिय सिव सुख तजिकर, विषय न रहिउ भुलाई ।।
(योगीरासा) _ 'अनुप्रेक्षा भावना' में आपने संसार की अनित्यता का मामिक चित्र उपस्थित किया है। 'बनजारा' शीर्षक कविता में 'आत्मा' का एक बनजारे के रूप में वर्णन है। आत्मा, बनजारे के समान इस विश्व में भटकता रहता है। बनजारे का अपना कोई स्थायी निवास नहीं होता। आत्मा के लिए भी इस संसार में कोई स्थायी निवास नहीं है। स्वजन, परिजन, शरीर आदि के प्रति
१. गुरु मुणि माहिंदसेण-चरण नमि रासा कीया ।।
दास भगवती अगरवालि जिणपद मनु दीया ।।