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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 91 कर्णप्रिय मनभावन शब्द श्रवण कर श्रेणिक राजा हर्षित एव सतुष्टित होता हुआ स्नान कर, बहुमूल्य वस्त्राभूषणो से अलकृत एव सुशोभित होकर चलना महारानी के समीप आकर उसे कहता है- देवानुप्रिये ! पचयाम धर्म के प्रवर्तक श्रमण भगवान् महावीर तप, सयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए गुणशील LXIII चैत्य मे विराज रहे हैं। ऐसे महान् पुरुषो का नाम - गोत्र श्रवण करने से महान् फल की समुपलब्धि होती है, तब उनके दर्शन, वदन, पर्युपासना, धर्म-श्रवण और विपुल अर्थ ग्रहण करने से तो निश्चय ही महान् फल होता ही है। अतएव अपन भी गुणशील चैत्य मे चलकर प्रभु को वदन, नमन, सत्कार-सम्मान करते हुए पर्युपासना करे, जो इस भव और परभव मे हितकर, सुखकर क्षेमकर, मोक्षप्रद और भव-भवान्तर में पथ - दर्शक होगी । महारानी चेलना अत्यन्त हर्षित, प्रमुदित और विनय भाव से नरेश के वचनो को स्वीकार कर वस्त्रालकार से सुशोभित होकर बाह्य सभा स्थान मे महाराजा श्रेणिक के समीप अतिशीघ्र पहुँच गयी । तब चेलना एव श्रेणिक श्रेष्ठ, धार्मिक एक ही रथ मे बैठकर गुणशील उद्यान मे पहुँचे और समवसरण मे विराजमान प्रभु की पर्युपासना करने लगे। वैराग्य से विकार की ओर : चलना एव श्रेणिक की सौन्दर्य छटा का दिग्दर्शन कर श्रमण निर्ग्रन्थो एव निर्ग्रन्थिनो का वैरागी मन भी विकारी बन गया। वे भगवान् महावीर के धर्ममार्ग को विस्मृत-सा करते हुए श्रेणिक और चेलना के शारीरिक सौन्दर्य से समाकृष्ट हुए भोगाभिलाषी बन गये। उस समय निर्ग्रन्थो के मन मे इस प्रकार के भाव पैदा होने लगे - ब अहो | श्रेणिक राजर्षि विशाल ऋद्धि के स्वामी है । सम्पूर्ण राजगृह नगर उनकी एक आवाज पर सर्वस्व समर्पण करने को तैयार है। उनका राजसी सुख वर्णनातीत है । अत पुर मे एक से एक रूप और सौन्दर्य की साक्षात् देवियाँ, उनकी महारानियाँ, अप्सराओ जैसी प्रतीत होती हैं । यह महारानी चेलना के साथ मे सर्वालकारो से विभूषित ऐसे लगते है मानो साक्षात् ऋद्धिशाली देव और देवी ही भूमि पर अवतरित हुए हैं। अतएव हमारे चारित्र, तप, नियम, ब्रह्मचर्यपालन और त्रिगुप्ति की सम्यक् आराधना का विशिष्ट फल हो तो हम भी भविष्य मे श्रेणिक की तरह अभिलषित भोग भोगे । निर्ग्रन्थिने भी चितन करने लगी- अहो चेलना महारानी । महान् ऋद्धिवाली,
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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