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________________ 92 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग- द्वितीय महापुण्यवान नारी रत्न है, जिसको महाराजा श्रेणिक का सहवास मिला, वस्त्रालकारो से सुसज्जित साक्षात् देवी के समान यह राजा श्रेणिक के साथ उत्तम मानुषिक भोगो को भोग रही है। यदि हमारे चारित्र, तप, नियम और ब्रह्मचर्य पालना का कुछ विशिष्ट फल हो तो हम भी भविष्य मे चेलना की तरह मानुषिक भोग भोगे तो श्रेष्ठ होगा । इस प्रकार भगवान् की सन्निधि मे समवसरण मे बैठे हुए ही कुछ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिने मन मे सकल्प (निदान) कर रहे हैं। महाराजा श्रेणिक और महारानी चेलना अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं । 148 अभयकुमार भी वहाँ धर्म - श्रवण को उपस्थित हो जाता है और मेघकुमार महल के झरोखे में बैठा देख रहा है कि लोग झुण्ड के झुण्ड बनाकर एक ही दिशा मे गमन कर रहे हैं। उसने चितन किया कि आज क्यो इतने व्यक्ति एक ही दिशा मे जा रहे हैं? उसे स्वय समाधान नहीं मिला तब उसने कचुकी पुरुष को बुलाया और उससे पूछा- देवानुप्रिय । क्या आज राजगृह नगर मे इन्द्र-महोत्सव LXIV, स्कन्द महोत्सव LXV, रुद्र, शिव, वैश्रमण (कुबेर), नाग, यक्ष, भूत, नदी, तडाग, वृक्ष, चैत्य, पर्वत, उद्यान या गिरि की यात्रा है 149, जिससे बहुत-से उग्र या भोग कुल के लोग एक ही दिशा मे गमन कर रहे हैं? 1 कचुकी पुरुष - देवानुप्रिय । आज राजगृह नगर मे इन्द्र महोत्सव यावत् गिरियात्रा नहीं है, लेकिन धर्मतीर्थ के सस्थापक भगवान् महावीर समवसृत हुए हैं। वे गुणशील चैत्य मे विराज रहे हैं, इसलिए उग्रवशीय, भोगवशी" बहुत-से लोग उधर जा रहे हैं। मेघकुमार यह सवाद श्रवणकर अत्यन्त हर्षित एव प्रमुदित होता है। वह कौटुम्बिक पुरुषो को बुलाकर चार घटा वाले अश्व रथ को तैयार करवाता है। तत्पश्चात् स्नानादि करके सर्वालकारो से विभूषित कोरट की माला युक्त छत्र धारण कर, विपुल सुभट समुदाय सहित गुणशील चैत्य के पास आता है । वहाँ भगवान् के छत्रादि अतिशय देखकर तथा 150 जभृकLAVI एवं 151 विद्याधरोंLXVII को नीचे उतरते, ऊपर चढते देखकर रथ से नीचे उतरता है । समवसरण पाँच अभिगम सहित प्रवेश करके प्रभु की पर्युपासना करने लगता है। (क) कंचुकी-अत पुर का रक्षक, दरबान (ख) उग्रवंशी - जिस कुल को ऋषभदेव स्वामी ने रक्षक रूप मे स्थापित किया वह उग्रकुल और उसमे उत्पन्न उग्रवंशी । (ग) भोगवंशी - जिस कुल की स्थापना भगवान् ऋषभदेव ने पूज्य के स्थान पर की वह भोगकुल और उनके वराज भोगवशी । (घ) विद्याधर-विद्या के बल से आकाश में उड़ने वाला तथा अनेक चमत्कार करने वाला, वैताढ्य पर्वत की विद्याधर श्रेणी मे रहने वाला मनुष्य
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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