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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 31 वेदवाक्य द्वारा प्रतिपादित किया है कि ससारी जीव जो राग-द्वेष युक्त हैं, उनके ही कर्मबध होता है। इस प्रकार भगवान् के मुख से तर्कसंगत वेद-वाक्यो का अर्थ श्रवण कर मडिक का सशय विनष्ट हुआ। उन्होने प्रभु चरणो मे अपनी निवेदना प्रस्तुत की-भते ! आप जैसे महान ज्ञानी भगवत की शरण पाकर मैं धन्य हो गया हूँ। अब मैं आपके चरणो मे प्रव्रजित होकर सर्वतोभावेन समर्पित बनना चाहता हूँ। भगवान् ने मडित एव उनके शिष्यो का समर्पण जानकर मडिक को 350 शिष्यो सहित जैन भागवती दीक्षा प्रदान की। ___ मडिक पुत्र अब मुनि अवस्था को प्राप्त कर चुके है और उनके मुनि जीवन स्वीकार करने के समाचार पूरे नगर मे तुरन्त लोगो के मुख से प्रसारित होने लगे। उस समाचार को यज्ञ-मण्डप मे स्थित मौर्यपुत्र ने भी श्रवण किया। तब उनके मन मे प्रभु को नमस्कार एव पर्युपासना की भावना जागृत हुई। इसी शुभ भावना से अपने अतेवासियो सहित प्रभु के समवसरण की ओर बढने लगे। समवसरण मे प्रविष्ट होकर भगवान् के भव्य दीदार को देखकर हतप्रभ रह गए। इतनी विशिष्ट आभा वाला मानव मैंने पहली बार दृष्टिगत किया है। वे प्रभु के अप्रतिम सौन्दर्य को निहारने लगे। तभी भगवान् ने नाम गोत्र से सम्बोधित करते हुए फरमाया-मौर्यपुत्र काश्यप ! तुम्हारे मन मे सदेह है कि देव है या नहीं है। तुमने एक वेद वाक्य श्रवण किया-"ए एष यज्ञायुधो यजमानोऽजसा स्वर्गलोक गच्छति" यज्ञ करने वाला यजमान निश्चित रूप से स्वर्ग मे जाता है। इससे तुमने चितन किया कि देवो का अस्तित्व है। लेकिन तुमने दूसरा वेद वाक्य श्रवण किया-"को जानाति मायोपमान् गीर्वाणानिन्द्रयम-वरुण-कुबेरादीन' अर्थात् माया सदृश इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि देवो को कौन जानता है? इससे तुमने चितन किया कि देव नहीं है। अत तुम सशयग्रस्त हो कि देव है अथवा नहीं? परन्तु हे मौर्यपुत्र ! देवो का अस्तित्व तो प्रत्यक्ष सिद्ध है। इसी समवसरण मे वैमानिक, ज्योतिष्क, भवनपति एव वाणव्यतर, चारो जाति के देव हैं। साथ ही मनुष्य यहाँ विशिष्ट पुण्य का उपार्जन करता है, वह उस पुण्य को कहाँ भोगेगा? उसके पुण्य भोगने का स्थान ही देवगति है। वेद मे भी यज्ञ करने से देव भव की प्राप्ति बतलाई है। साथ ही वेद मे यह भी कहा है कि "इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि माया सदृश हैं।" इस वाक्य का तात्पर्य यह है कि जैसे माया अनित्य है, वैसे ही देव भव भी अनित्य हे। वे भी देवायु को भोगकर पुन मनुष्य अथवा तिर्यच बनते हैं। इस प्रकार देवो की सत्ता तुम्हे माननी चाहिए।
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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