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________________ 40 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय मुग्ध बना दिया है। भगवान् महावीर की दिव्य वाणी का प्रभाव भव्यजनो के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। श्रमण समुदाय, श्रमणी समुदाय, श्रावक और श्राविकाऍ मध्यम पावा मे सर्वत्र परिलक्षित हो रहे हैं। कोई साधक समिति-गुप्ति' का पालन करता हुआ गोचरीग जा रहा है तो कोई भिक्षाचर्या करके पुन लौट रहा है। कोई घअचित्त-प्रासक या धोवन पानी की गवेषणा कर रहा है तो कोई एषणीय पानी लेकर लौट रहा है। पावा का कण-कण धर्ममय बन गया और अपश्चिम तीर्थकर महावीर अपनी उत्कृष्ट पुण्य प्रकृति तीर्थकर नाम कर्म का वेदन (अनुभव) कर रहे हैं। तीर्थंकर शब्द जैन वाड्मय का पारिभाषिक शब्द है। जैन धर्म में सस्थापक को तीर्थकर की सज्ञा से अभिहित किया जाता है। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध सघ तीर्थ कहलाता है। इसी चतुर्विध सघ रूपी तीर्थ की रचना करने वाले को तीर्थंकर कहते हैं। यह तीर्थंकर पद अनादि काल से चला आ रहा है। भूतकाल मे अनत तीर्थंकर हो गये। भविष्य मे भी अनत तीर्थंकर होंगे और महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा इस भूमण्डल पर सदैव तीर्थंकर विद्यमान रहते हैं। तीर्थकर भगवान् पन्द्रह कर्मभूमिज क्षेत्रो मे ही होते हैं। पाँच भरतxvill पाँच ऐरावत एव पॉच महाविदेह, इन पन्द्रह क्षेत्रो मे तीर्थंकर होते हैं। पाँच भरत एव पॉच ऐरावत मे तो तीसरे-चौथे आरे मे ही तीर्थंकर होते हैं, लेकिन महाविदेह क्षेत्र मे सदैव चतुर्थ आरक के समान काल रहने से प्रत्येक काल में तीर्थंकर पाये जाते हैं। लोक मे तीर्थंकर कम से कम बीस होते हैं और अधिक से अधिक 170 होते हैं। इस जगती पर पॉच महाविदेह हैं, उनमे बत्तीस विजयो (क्षेत्रों) मे तीर्थंकर हो सकते हैं। कम से कम एक महाविदेह मे चार और अधिक से अधिक बत्तीस हो सकते हैं। जब एक महाविदेह मे चार तीर्थंकर होते हैं तो (5x4-20) पॉच महाविदेह मे 20 तीर्थकर हो जाते हैं। जब अधिक से अधिक प्रत्येक महाविदेह मे बत्तीस तीर्थंकर होगे तो पॉच महाविदेह मे (32x5) 160 तीर्थकर हो जायेगे। उस समय एक-एक भरत तथा एक-एक ऐरावत मे एक-एक तीर्थंकर अवश्य होगे। अतएव पॉच भरत मे 5, पॉच ऐरावत मे 5 तथा महाविदेह मे 160. इस प्रकार अधिक से अधिक कुल 170 तीर्थंकर होते हैं। जब-जब भूमण्डल पर मनुष्यो की सख्या उत्कृष्ट होती है तब-तब 170 तीर्थंकर होते हैं। (क) समिति- जिसके द्वारा साधक सम्यक प्रवृत्ति में है वह ईयादि के भेद से पांच प्रकार की है। (ख) गुप्ति- मन, वचन और काया को अशुभ प्रवृत्ति को रोकना । (ग) गोचरी- आधाकर्मादि दोष रहित भिक्षा (घ) अचित्त- जीव रहित (ङ) प्रासुक- प्राण रहित, (अजीव). (च) एपणीय- दोष रहित (छ) तीर्थंकर- जो तीर्थ/गणधरों को तैयार करते है वे तीर्थकर है (आ.चू 1, पृ.85)
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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