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________________ 30 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय तब भगवान् ने फरमाया-मडिक वसिष्ठ | तुम्हारे मन मे सदेह है कि जीव के बध और मोक्ष होता है, कि नहीं। विभिन्न प्रकार के वेद वाक्यो को श्रवण कर तुम्हारा मन सदेहग्रस्त हो गया। वेद मे एक वाक्य आया "सएष विगुणो विभुर्न बध्यते ससरति वा, न मुच्यते मोचयतिवा, न वा एष बाह्यमभ्यन्तर वा वेद" अर्थात् यह आत्मा सत्त्वादि गुण-रहित विभु है। उसे पुण्य पाप का बध नहीं होता। वह कर्म से मुक्त नहीं होता, दूसरो को कर्म से मुक्त नहीं करता। वह बाह्य अथवा आभ्यन्तर, कुछ भी नहीं है। इससे तुम समझते हो कि जीव को कर्मबध नहीं होता। वेद मे दूसरी जगह वाक्य है-नहवै सशरीस्य प्रिया प्रिययोर पहतिरस्ति, अशरीर वा वसत प्रियाप्रिये नस्पृशत" अर्थात् सशरीरी जीव के प्रिय-अप्रिय होता है और अशरीरी का प्रिय-अप्रिय नहीं होता। इससे तुम समझते हो कि ससारी जीव के कर्मबध होता है और मोक्ष होने पर कर्मबंध नहीं होता है। अत दोनो प्रकार के वाक्यो का सम्यक् अर्थ नहीं जानने के कारण तुम्हारे मन मे सदेह व्याप्त है कि वस्तुत जीव के बध या मोक्ष होता है या नहीं? लेकिन मडिक ! ससारी जीवो को राग-द्वेष के कारण कर्मो का बध अवश्यमेव होता है। कर्म बधन का कारण राग-द्वेष हैं। जब तक कर्मबध का कारण विद्यमान रहेगा, कर्मबध होता ही रहेगा और राग-द्वेष नष्ट होने पर जीव कर्म-विमुख बन जायेगा। कर्म-विमुख जीव के कर्म का बधन नहीं होता। जैसे बीज जलने पर वृक्ष नहीं उगता वैसे ही कर्म नष्ट होने पर सिद्ध जीव के कर्मो का बधन नहीं होता है। मडिक, तुम इस बात को समझो कि ससारी आत्मा के कर्मबध होता है, सिद्ध आत्मा के नही। जब यह आत्मा मिथ्यात्वादि के सम्पर्क मे रहता है, तब वह भीषण कर्मो का बध कर लेता है और उन्हीं कर्मो के कारण चतुर्गति रूप ससार मे दारुण दुख का अनुभव करता रहता है। तत्पश्चात् कदाचित् उसे किसी दिव्य (चारित्र) आत्मा के ससर्ग से सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की प्राप्ति हो जाए तो वह सम्यक पुरुषार्थ कर भीषण बधे हुए कर्मो को नष्ट कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बन जाता है। यद्यपि जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है, तथापि जैसे अनादि काल से सोना मिट्टी के साथ खदान मे है, उसको अग्नि आदि मे तपाने पर मिट्टी पृथक हो जाती है, सोना पृथक् । वैसे ही अनादिकालीन जीव और कर्म का सम्बन्ध भी अनादि होने पर सम्यक पुरुषार्थ से पृथक् किया जा सकता है। वेद मे “स एष विगुणो " कहा गया है। इसमे जीव का स्वरूप बतलाया गया है कि मुक्त जीव के बधन-मोक्ष नहीं होता है और "नहीं वै " इस -
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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