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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 15 बनाने वाला व्यक्ति क्रमश ऊपर-ऊपर चढता है, वैसे ही शुभ कर्मों वाला व्यक्ति स्वय उपार्जित शुभ कर्मो के उदय से ऊर्ध्वगति प्राप्त करता है ।
अशुभ कर्मबंधन की आधारशिला है-हिंसा । हिसा दुर्गति का द्वार है, हिंसा दुख का पारावार है, हिंसा घोर दुखमय फल प्रदान करने वाला आश्रव है। हिंसा अविवेक की जननी है । हिंसा घोर भय उत्पन्न करने वाली है | 22
इस संसार मे अनेक पातकी, सयमविहीन, अनुपशात क्रोधादि परिणाम वाले, दूसरो को पीडा पहुॅचाने मे हर्ष का अनुभव करने वाले, प्राणियो के प्रति द्वेष भाव रखने वाले भयकर प्राणवध-हिंसा किया करते हैं । पाप मे आसक्त अन्य प्राणियो को पीडा पहुॅचाने मे आनन्द का अनुभव करते हैं ।
इस हिंसा का प्रमुख कारण है-आसक्ति । कई मानव अनेक प्रकार के वाद्यो, चमडे के बैग, मुलायम पर्स, मुलायम जूतो के लिए चमडा प्राप्त करने के लिए जीवित गर्भवती गाय-भैंसादि का वध करते है और उनके जीवित गर्भस्थ शिशु का चमडा उतार कर मुलायम चमडे को प्राप्त करते हैं । केवल स्वय की प्रसन्नता के लिए ऐसी घोर हिंसा करके भी आनन्द का अनुभव हा ! हा ।
यह भीषण कर्मबध का कारण है ।
कई लोग रेशमी वस्त्र को प्राप्त करने के लिए हजारो-लाखो कीडो को खौलते गर्म पानी मे डालकर उनकी निर्मम हत्या करके आनन्द का अनुभव करते हैं, यह घोर दुख का द्वार है । अपनी विलासिता के लिए दीन-हीन, मूक, असमर्थ, असहाय जन्तुओ की हत्या - यह नरक का द्वार है | 24
ये बेचारे मूक प्राणी अशरणभूत है। इनका कोई नाथ नहीं। ये सहायक विहीन अपने अशुभ कर्मो की बेडियो से जकडे हैं। इनका कितनी निर्ममता से घात मनुष्य करता रहता है। इनके मास का लोलुप बनकर कैसे-कैसे इन दीन-हीन पशुओ की गर्दन पर छुरियाँ चलाकर अपना उदर-पोषण करता है। केवल अपनी जिह्वालोलुपता से इतना जबरदस्त प्राणघात हिंसा घोर कृत्य ।
हिताहित के विवेक से शून्य अज्ञानी हिसक बुद्धि से, कषाय से, प्रेरित होकर अपने मनोरजन के लिए, रति के लिए, मौज-शोक के लिए क्रुद्ध होकर प्राणियो का हनन करता है, लुब्ध होकर प्राणियो का हनन करता है, मुग्ध होकर
(क) आश्रव - जिसके द्वारा आत्मा मे कर्म-परमाणु प्रविष्ट होते है, उसे आश्रव कहते है । (ख) अनुपशांत-हिसक । (ग) रति- विषयसुख ।