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________________ 14 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय परकोटे मे आगन्तुक श्रद्धालुओ ने यान आदि रख दिये। इस प्रकार समवसरण मे भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-ये चार जाति के देव, चारो जाति की देवियॉ, मनुष्य, मनुष्य स्त्रियाँ, तिर्यंच, तिर्यच स्त्रियाँ इन बारह जाति की परिषद से सुशोभित प्रभु की दिव्य छटा दर्शनीय थी। उद्बोधन : भव्यो को परिषद के सुशोभित होने पर मगलाचरण करने के लिए सर्वप्रथम प्रथम देवलोक का इन्द्र-शक्रेन्द्र स्वय भक्ति से रोमाचित होकर, अजलि जोडकर स्तुति करते हुए इस प्रकार मधुरिम मनमोहक शब्दावली प्रस्तुत करता है-भगवन् ! आपकी ऊर्जस्विल आभा-मण्डल की भव्य प्रभा समस्त दर्शको को विस्मयान्वित बना रही है। आपके इस दिव्य मुखमण्डल को देखने के लिए, आपकी भव्य देशना को कर्णगोचर करने के लिए अनुत्तर विमानवासी देव भी तरसते रहते हैं, लेकिन फिर भी वे आपकी इस अमृत देशना का पान करने के लिए भूमण्डल पर अवतरित नहीं हो सकते। हमारा तो आज महान् पुण्योदय है कि हमे आपका पावन सान्निध्य सप्राप्त हुआ है। यह स्वर्णिम अवसर हमारे समक्ष है, इसका हमे परिपूर्ण लाभ लेना है। आपकी सुखद शरण का ही समाश्रय ग्रहण करना है। आपकी ही पर्युपासना" कर जीवन को धन्य बनाना है। निरन्तर आपकी स्तुति करते हुए सिद्धि-सौध को प्राप्त करना है। आप ही इस भीषण ससार-सागर से पार कराने वाले कुशल, परम नाविक हैं। राग-द्वेष के सघन बधनो से मुक्त कर वीतरागता के दर्शन कराने वाले हैं। भ्रातिमय जगत् मे आसक्त बनाने वाले मोह कर्म का समूल उच्छेद करने मे सामर्थ्यवान हैं। भव्य आत्माओ को विरति के मार्ग पर आरूढ करने वाले है। सभी को कल्याण मार्ग की ओर अग्रसर करने वाले हैं। हे भते । अब मैं आपश्रीजी को विनति करता हूँ कि आप अपनी अमृतमय वाणी से भव्य आत्माओ को उद्बोधन प्रदान करावे। इस प्रकार अपनी श्रद्धा से परिपूर्ण भगवन चरणो मे निवेदन प्रस्तुत कर शक्रेन्द्र प्रभु को वदन-नमस्कार करके अपना आसन ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् स्वयमेव भगवान् महावीर अपनी दिव्य देशना प्रदान करते हैं | अहो ! यह ससार समुद्र के समान कठिनाई से पार करने योग्य है। इस ससार मे भटकने का मूल कारण कर्म ही है। जैसे कुआँ खोदने वाला व्यक्ति स्वयमेव नीचे ही नीचे चला जाता है, वैसे ही स्वय द्वारा उपार्जित अशुभ कर्म के उदय से जीव निरन्तर अधोगति मे जाता रहता है। तद् विपरीत जैसे महल (क) यान-रथादि सवारी योग्य साधन, गाड़ी (ख) अनुत्तर विमानवासी देव-सबसे ऊपर रहने वाले वैमानिक देव, उनके ऊपर सिद्धशिला है। (ग) पर्युपासना-सेवा, भक्ति (घ) सिद्धि सोध-मोक्ष-महल
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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