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________________ 262 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय उनका सत्कार-सम्मान करेगा उसे राज्यद्रोही समझा जायेगा और कालान्तर मे उसे मृत्युदड दिया जायेगा। जब लोगो ने यह घोषणा सुनी तो उनका मन तो बहुत था कि वे उदायन मुनि का सत्कार-सम्मान करे, लेकिन वे राजा की इस घोषणा से भयाक्रान्त बन गये। इधर उदायन मुनि विहरण करते हुए वीतिभय नगर आये। वे इतना दीर्घ विहार करते अत्यन्त थकान का अनुभव कर रहे थे। लेकिन जहाँ भी जाते वहाँ उन्हे ठहरने के लिए स्थान तक नहीं दिया गया। उनकी उस दयनीय हालत को देखकर एक कुम्हार के मन मे करुणा उमड पड़ी और उसने सोचा कि मरना तो एक बार है ही। तब यदि मरते हुए प्राणी पर दया करने से कोई मार देता है तो वह मरना भी आनन्ददायी है। ऐसा सोचकर कुम्हार मुनि को स्थान दे देता है। तब केशी के मत्री राजर्षि उदायन को विष देने की सलाह देते हैं। तब केशी राजा किसी पशुपालक को बुलाकर उसे कहते हैं कि तुम्हारे यहाँ उदायन मुनि जब दधि लेने आये तब तुम उन्हे विषमिश्रित दही देना । पशुपालक राजा की बात को स्वीकार कर लेता है और राजर्षि उदायन को विषमिश्रित दही दे देता है। अहो सौम्य समभाव : उस समय उदायन के त्याग-तप से प्रभावित होकर एक देव उदायन के प्रति अनुरक्त था। उसे जैसे ही पता चला कि राजर्षि को दही मे विष दिया गया, वह दही मे से विष का हरण कर लेता है और राजर्षि से निवेदन करता है-देवानुप्रिय ! यहाँ आपको विषमिश्रित दही मिलेगा इसलिए आप दही की इच्छा मत करना। उदायन मुनि ने देव के कथन को स्वीकार कर लिया, लेकिन कर्मोदय से पुन रोग उनके शरीर मे वृद्धिगत होने लगा, जिसका उपशमन करने हेतु पुन उदायन मुनि दही ग्रहण करते हैं तो देवता पुन विष का हरण कर देता है। इस प्रकार तीन बार दही मे से देव विष निकाल देता है। लेकिन चौथी बार जब मुनि के पात्र मे दही आता है, देवता प्रमादवश विष हरण नहीं कर पाते और उसी विषमिश्रित दही को खाने से मनि के परे शरीर मे जहर व्याप्त होने लगता है। तब मुनि उसी समय अनशन ग्रहण कर लेते है। एक मास का अनशन करके समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त करके उदायन मुनि केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्राप्त कर मोक्ष पधार जाते हैं। इधर उदायन मुनि पर भक्ति रखने वाले उस देव को अवधिज्ञान से पता चलता है कि वीतिभय निवासियो ने मुनि को विषमिश्रित आहार दिया, तब वह कालरात्रि की तरह वहाँ आता है और निरन्तर धूलि की वृष्टि करता रहता है। उदायन को आश्रय देने वाला, शय्या
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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