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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 263 देने वाला कुम्भकार, जो निरपराधी होता है, उसको वहॉ से हरण करके सिन्नपल्ली मे ले जाता है। वहाँ 'कुम्भकारकृत' उसके नाम का नगर बसा देता है और उसे वहाँ रखता है। शेष वीतिभय नगर को धूल से ढककर तहस-नहस कर देता है।18 इस प्रकार उदायन राजा ने अन्तिम राजर्षि के रूप मे भगवान् के सान्निध्य मे दीक्षा ग्रहण करके आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। एक प्रचलित कथानक के अनुसार जब कुम्हार के घर मुनि रहते है तो वह उपचार के लिए वैद्य को बुलाता है। राजा केशी को इस घटना का पता चलता है, तब राजा वैद्य को बुलाता है और कहता है कि तुम मुनि को पुडिया मे जहर मिला देना, मैं तुम्हे एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दूंगा। वैद्य कहता है-ठीक है। तब वैद्य मुनि को पुडिया मे जहर मिलाकर दे देता है। जैसे ही राजर्षि पुडिया लेते हैं, उनके शरीर मे विष व्याप्त होने लगता है। कुम्हार को पता चलता है कि वैद्य ने मुनि को जहर दे दिया। वह समझ जाता है कि पापी राजा ने ही वैद्य से जहर दिलवाया है, तब उसके मुख से अनायास निकलता है "अहो कष्टम् अहो कष्टम् ।" अरे पापी सम्राट् ने मुनि को जहर दिलवा दिया। उसी समय मुनि बोले-नहीं, नही राजा पापी नहीं है, पापी तो मैं हूँ जिसने राजा को राज्य रूपी विष दिया है। इस प्रकार समभाव से उदायन वेदना सहन कर मोक्षगामी बना। उदायन का समभाव वर्णनातीत है। ऐसा समभाव धारण करने वाला आत्म-गुणो से समलकृत बन सिद्धिसौंध मे जाता है। इति टिप्पणी-उदायन राजर्षि को विष देने की घटना अभीचिकुमार के चम्पा मे जाने के बाद की लगती है। चम्पा में जब अभीचिकुमार गया, उस समय तक श्रेणिक की मृत्यु हो चुकी थी क्योकि उस समय चम्पा का राजा कौणिक बतलाया है। अतएव श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् ही उदायन को विष दिया गया है, ऐसा सगत लगता है। तत्त्व तु केवलीगम्यम्।
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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