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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 261 होकर उन्होने अपथ्य का सेवन कर लिया । तब उनके शरीर मे महाव्याधि उत्पन्न हो गयी। उस असह्य व्याधि के शमन के लिए उन्होने वैद्य का अवलम्बन लिया। वैद्य ने बतलाया कि यद्यपि आप विदेह साधक है तथापि रोगोपशाति के लिए दही का उपयोग करे। राजर्षि उदायन वहाँ से विहार करके, जहॉ प्रभूत गोधन था, वहाँ पधार गये और दही का सेवन करने लगे। वहाँ रहते हुए उदायन मुनि ने चितन किया कि वीतिभय नगर मे मेरा भानजा केशी राज्य करता है, वहाँ प्रभूत गोधन है, इसलिए वहाँ चले जाना उचित है ताकि मैं दीर्घकाल तक दधिसेवन करूँगा तो किसी प्रकार का दोष नहीं लगेगा। ऐसा विचार करके वे ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वीतिभय पधार गये।
उदायन राजर्षि को वीतिभय की ओर आया हुआ जानकर मत्रियो ने केशी राजा से निवेदन किया-राजन् | तुम्हारा मामा उदायन तप से सत्रस्त होकर यहाँ आया है। इन्द्रपद समान राज्य का परित्याग करके अब उसके मन मे पश्चात्ताप की अग्नि जल रही होगी कि हाय राज्य छोडकर मैंने यह क्या किया? वह राज्य पुन प्राप्त करने की लिप्सा से ही यहाँ आया है। इसलिए तुम उदायन का विश्वास मत करना।
केशीकुमार-अरे । स्वय का प्रदत्त राज्य वह पुन ग्रहण करे, उसमे चिता जैसी कोई बात नहीं है क्योकि धनवान व्यक्ति अपना दिया हुआ धन ले भी ले तो उसमे देने वाले को क्या चिता?
__ मत्रीगण हे राजन | तमने प्रकर्षक पुण्य के उदय से यह राज्य प्राप्त किया है। तुमको किसी ने राज्य दिया नहीं और राजधर्म तो है ही ऐसा कि इसे प्राप्त करने के लिए पिता, भाई, मामा आदि से बलात्कार करके भी प्राप्त कर लेते है। तब फिर दिये हुए राज्य का परित्याग करना उचित नहीं है। . इस प्रकार कुविचारो के पोषण से केशी के मन मे भी मलिन भावनाओ का प्रवेश हो जाता है। सदसस्कार प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करना होता है, लेकिन कुसस्कार तो स्वत ही, शीघ्र ही, प्रादुर्भूत हो जाते है। इन्हीं कुसस्कारो से आप्लावित राजा केशी उदायन के प्रति भक्ति का परित्याग कर देता है और मत्रियो से पूछता है-अच्छा, तुम बताओ कि अब मुझे क्या करना चाहिए?
मत्रीगण-राजन् । शहर मे उनको रुकने के लिए कोई स्थान नहीं देगा तो ठीक रहेगा। . केशीकुमार-हॉ, ऐसी ही उद्घोषणा करवा देता हूँ। यो कहकर केशीकुमार ने नगर मे घोषणा करवा दी कि जो कोई उदायन मुनि को स्थान, भोजन देगा, (क) प्रकर्ष-प्रबल