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260 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय सहयोग करता रहा हूँ फिर भी मेरे भुजबल एव पौरुष का अपमान करते हुए मेरे पिता ने अपने भानजे केशीकुमार को राज्य देकर जनता के समाने मुझे अयोग्य साबित कर दिया है। यद्यपि मैं सदैव उनके पदचिहो पर चलने का प्रयास करता रहा, उनके प्रत्येक आदेश का अन्त करण से अनुपालन करता रहा, उनके इगित-आकार को समझता रहा, लेकिन फिर भी मुझ निरपराधी के साथ यह रूक्ष व्यवहार, यह अपमान, यह तिरस्कार मै स्वय सहन करने मे अशक्त हूँ, असमर्थ हूँ। तब क्या करूँ? इस तरह निन्दापात्र बनकर वीतिभय नगर मे रहना तो अत्यन्त लज्जा का विषय है। अतएव मुझे वीतिभय नगर का परित्याग कर देना चाहिए।
यो सोचकर अभीचिकुमार अपने अन्त पुर, परिवार सहित समस्त भोजन, शय्यादि सामग्री लेकर वीतिभय नगर से निकल गया और अनुक्रम से गमन करता हुआ अपने मौसेरे भाई चम्पानगरी के राजा कोणिक के पास चला गया और राजा कोणिक से अपनी मानसिक व्यथा सुनाई। राजा कोणिक ने अभीचिकुमार की व्यथा को सुनकर उसे अपने यहाँ आश्रय देकर विपुल भोग-सामग्री का स्वामी बना दिया।
वहाँ अभीचिकुमार जीवाजीव का ज्ञाता बनकर श्रमणोपासक योग्य व्रतो को ग्रहण करके भी उदायन राजर्षि के प्रति वैरानुबध से युक्त था।
अभीचिकुमार ने बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन कर अन्तिम समय मे अर्धमासिक सलेखणा सथारा कर वैरानुबध की आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना कालधर्म को प्राप्त करके रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासो के परिपार्श्व मे, जहाँ असुरकुमारो के चौसठ लाख असुरकुमारावास निरूपित किये गये हैं वहाँ आताप नामक असुरकुमारावासो मे से किसी एक आताप नामक असुरकुमारावास मे आताप-रूप असुरकुमार देव के रूप मे एक पल्योपम की स्थिति से उत्पन्न हुआ है।
वह वहाँ से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र मे जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बनेगा और परिनिर्वाण को प्राप्त करेगा।" विष दापन :
उदायन मुनि ने जिस दिन सयम ग्रहण किया उसी दिन से उन्होने बेला, तेला, चोला, पचोला आदि तप के द्वारा कर्मजल को शोषित करते हुए अपनी देह को भी शुष्क बना डाला।
__ शरीर तपस्या से एकदम क्लान्त हो गया । पाचनशक्ति कमजोर पड गयी। । फिर भी साहस जुटाकर वे ग्रामानुग्राम विहार कर रहे थे। एक बार क्षुधा पीडित