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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 253 भीषण यात्रा : भगवान् महावीर ने भी ज्ञानालोक मे उदायन राजा के भावो को हस्तकमलवत् देखा और अनुकम्पा से अनुरजित होकर चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य से विहार कर सिधुसौवीर जनपद के वीतिभय नगर की ओर स्वय के चरण गतिमान कर दिये । चम्पा से वीतिभय नगर सात सौ कोस" था और मौसम भी गर्मी का प्रारम्भ हो गया था। उस ग्रीष्मकालीन समय मे मरीचिमाली अपनी उत्तप्त मयूखो से भूमण्डल को उत्तप्त बना रहा था। ताप से तपी हुई धरती मानो अगार - सी जलने लगती थी। मार्ग मे भीषण जगल, दूर-दूर तक कोई गॉव परिलक्षित नहीं होता । कही झुग्गी-झोपडी तक भी दिखाई नहीं देती और न ही तरुओ की कोई शीतल छाँव ही मिल पाती। उस मरुप्रदेश की भीषण गर्मी को सहन करना अत्यन्त असह्य था। ऐसी भीषण गर्मी मे निरन्तर उग्र विहार प्रभु कर रहे थे । वे तो अतुल बलशाली और परम सहिष्णु थे, लेकिन उनके साथ गमन करने वाले साधक, वे भीषण गर्मी से सभ्रान्त चित्त वाले बन रहे थे । उन तप्त सडको पर नगे पाँव चलने से पैर ऐसे जल रहे थे मानो अगारो पर ही कदम रख रहे हो । दिनकर की उष्ण किरणो से लुचन किया हुआ सिर तवे की तरह गरम हो रहा था । कठ शुष्क बन रहे थे । प्यास मन को सत्रस्त कर रही थी, लेकिन दूर-दूर तक प्रासुक पानी मिलने का स्थान तक नजर नहीं आ रहा था। एक-एक क्षण पानी के बिना रह पाना अत्यन्त कठिन लग रहा था । क्षुधा ने भी अपना रूप दिखाना प्रारम्भ किया। भूख के मारे सारा गात्र शिथिल हो रहा था और एक कदम भी चलने का साहस जुटा पाना मुश्किल था । ऐसा लगता था कि अधिक समय तक इस प्रकार रहने से प्राण टिकना भी मुश्किल है। ऐसे समय मे अणगारो के मन मे ऐसा चितन चल रहा था कि कही प्रासुक अन्न-जल मिल जाये तो अपनी क्षुधा पिपासा को शात कर अपने प्राणो की रक्षा करले । उत्सर्ग का आश्रयण : उसी समय तिल से भरी हुई अनेक गाडियाँ उन्हे आती हुई दृष्टिगत हुई । शनै -शनै गाड़ियाँ एकदम सन्निकट आ गयी। उन गाडी वालो ने अणगारो की तरफ अपनी दृष्टि दौडाई और उन्होने अनुकम्पा की दृष्टि से उनके चेहरे पढ लिये । भूख से क्लान्त वदन देखकर उन्होने अणगारो से निवेदन किया- हमारी गाडियो मे तिल भरे हुए हैं, आप इन तिलो को ग्रहण कीजिए । अणगारो ने भगवान् महावीर से पूछा- भते । भूख से बेहाल बने हम प्राणो को धारण करने में समर्थ नहीं है । क्या हम इन तिलो को ग्रहण कर ले ? (क) हस्तकमलवत्- हाथ मे रखे हुए ऑवलो की तरह (ख) प्रासुक - अचित्त, जीव रहित
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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