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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 235 तब शालिभद्र चिन्तन करता है कि यह अनाथ समझकर मेरे सिर पर हाथ फिरा रहा है मुझे अनाथ नहीं, स्वय का नाथ बनना है। यह सोचकर उसका कोमल वदन कुम्हलाने लगा। नवीन पुष्प के समान शालिभद्र के वदन को कुम्हलाया हुआ दृष्टिगत कर भद्रा ने कहा-राजन् | आप इसे महल मे जाने की अनुमति दीजिये क्योकि यह मनुष्य होते हुए भी मनुष्य की गध से घबराता है। इसके पिता देव है, वे इसके लिए वस्त्रालकार भेजते हैं। इसलिए यह इस मानव-गध को सहन करने मे समर्थ नहीं है।* तब राजा ने अनुमति प्रदान की एव शालिभद्र स्वय के महल मे लौट गया। शालिभद्र के लौटने पर भद्रा ने राजा श्रेणिक एव अभयकुमार को भोजन करने का विनम्र निवेदन किया। उसके भावभरे निमत्रण को स्वीकार करके राजा और अभयकुमार तैयार हो गये।। भद्रा ने अपने सेवको से राजा और महामात्य के शरीर पर सहस्रपाक एव शतपाक तेल की मालिश करवाई और सुगधित गंधोदक से स्नान करने के लिए निमत्रण दिया। स्नान करते हुए एक मुद्रिका गृह वापिका मे गिर गयी। जव भद्रा को __ मालूम चला कि राजा की मुद्रिका गिर गयी तब भद्रा ने दासियो को आज्ञा प्रदान की कि तुम वापिका का जल दूसरी ओर निकाल दो। तव उन दिव्य आभरणो के मध्य राजा ने अपनी मुद्रिका देखी और राजा ने साश्चर्य दासियो से पूछा-वापिका मे इतने आभरण किसने डाले? चेटिकाओ ने बतलाया कि यहाँ शालिभद्र और उसकी पत्नियाँ एक दिन पहले पहने हुए आभूषण फेक देते हैं। राजा श्रवण कर सोचता है कि वस्तुत शालिभद्र धन्य है और मेरा भी महान पुण्योदय है कि राजगृह नगर मे ऐसे धनाढ्य लोग रहते हैं। तत्पश्चात् राजा और महामात्य अभयकुमार ने भोजन किया और विचित्र वस्त्रालकारो से सुसज्जित होकर अपने राजमहल मे लौट गये। राजा श्रेणिक अभयकुमार के साथ राजभवन मे लौट गया और शालिभद्र अपने महलो मे विरक्त बनकर चितन कर रहा है कि मुझे स्वय का ही नाथ बनना है, ये भोग तो अशाश्वत है, इनका भोग भोगते हुए मुझे पराधीन ही रहना पड़ेगा. मुझे तो आत्मशक्तियो को जागृत कर अपने भीतरी आलोक मे रमण करना है। शालिभद्र गम्भीर मुद्रा मे बेठा हे, इतने मे उसे समाचार ज्ञात होते हैं 'जवाहर किरणावली अनुसार अभयकुमार ने कहा-इसे महल में जाने की अनुमति दीजिए।
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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