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________________ 230 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय दो कोटाकोटि सागरोपम का सुषम-दुषम नामक चतुर्थ आरक होता है। तीन कोटाकोटि सागरोपम का एक सुषम नामक पचम आरक होता है। चार कोटाकोटि सागरोपम का सुषमा-सुषमा नामक छठा आरक होता है। इस प्रकार दस कोटा-कोटि प्रमाण अवसर्पिणी तथा दस कोटाकोटि प्रमाण उत्सर्पिणी मिलकर बीस कोटाकोटि सागरोपम का एक कालचक्र" होता है। भगवान् से समाधान प्राप्त कर गणधर गौतम का अन्त करण बाग-बाग हो गया। वे श्रद्धाभिषिक्त होकर प्रभु को वन्दन कर तप-संयम मे लीन बन गये। राजगृह निवासियो का यह परम सौभाग्य था कि दो प्रवासो के पश्चात् पुन प्रभु का राजगृह मे शुभागमन हो गया। अनेक भव्य प्राणी उनके सान्निध्य का लाभ उठाकर अपने जीवन को धर्ममार्ग पर सन्निहित कर रहे थे। इसी नगर मे रहने वाले महान ऋद्धिसम्पन्न सेठ गोभद्र ने अपने जीवन को पूर्व मे प्रभु चरणो मे समर्पित कर दिया था। __वह गोभद्र सेठ सौधर्म देवलोक का ऋद्धिशाली देव बन गया। देव-शय्या पर जन्म लेते ही देवियो ने पूछा-अहो स्वामिन् ! आपने पूर्वभव मे क्या ऐसा कार्य किया जिसके कारण आपको यह दिव्य देवर्द्धि सम्प्राप्त हुई? तब गोभद्र देव ने अपने पूर्वभव को अवधिज्ञान से जाना और कहा-मैंने भगवान् महावीर की सन्निधि मे तप-सयम का आराधन किया, इस कारण मुझे यह महान ऋद्धि समुपलब्ध हुई है। उसी समय गोभद्र देव ने अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव के परिवार को भी देखा और सोचा-मेरा पुत्र शालिभद्र ! वास्तव मे कितना भद्रिक परिणामी उसको मुझे ऋद्धि-समृद्धि से परिपूर्ण करना चाहिए। तब गोभद्र देव के प्रताप से खेतो मे बहुत वृद्धि हुई। शालिभद्र एव उसकी पत्नियाँ जैसे ही स्नान करके निवृत्त होती उसी समय देव ने गहनो और कपडो से भरी तेतीस पेटियाँ प्रतिदिन शालिभद्र के यहाँ प्रेषित करना प्रारम्भ किया। एक पेटी पर शालिभद्र एव भद्रा का एव बत्तीस पेटी पर बत्तीस पुत्रवधुओ का नाम अकित रहता था। प्रत्येक पेटी मे नौ-नौ आभूषण निकलते थे। उनमे शालिभद्र के लिए अनमोल सेहरा आता था जिसमे चमचमाती मणियाँ सूर्य के प्रकाश को विजित करती थीं। ये सारे वस्त्राभूषण एक बार पहनने के पश्चात् उतार दिये जाते थे। यदि कोई लेने के लिए आता तो उसको दे देते, अन्यथा सेहरा भण्डार मे डाल दिया जाता था और आभूषणादि गृह वापिका मे डाल देते थे। ये सब सुपात्र दान का सुप्रभाव था। शालिभद्र अपने महलो मे राजसी ठाठ भोग रहा था। उसको सासारिक ऋद्धि मे किसी प्रकार की कोई न्यूनता नहीं थी। इसी समय राजगृह नगर मे
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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