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अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 229 आठ यवमध्य की एक अगुल होती है। छह अगुल का एक पाद होता है। बारह अगुल की एक बितस्ति (बेत) होती है। चौबीस अगुल की एक रत्नि (हाथ) होती है। अडतालीस अगुल की एक कुक्षि होती है।
छियानवे अगुल का एक दण्ड, धनुष, युग, नालिका, यक्ष अथवा मूसल होता है।
दो हजार धनुष का एक गाऊ (कोश) होता है। चार गाऊ का एक योजन होता है।
इस प्रकार एक योजन लम्बा, एक योजन चौडा और एक योजन गहरा एक पल्य (कुऑ) हो, उसमे एक दिन, दो दिन, यावत् सात रात्रि के उगे हुए युगलिको के बालाग्र ऊपरी किनारे तक लूंस-ठूसकर भरे हो। इतने ठूस कर भरे हो कि अग्नि, जल और वायु तक भी उनमे प्रविष्ट न हो सके। वे बालान सडते नहीं, नष्ट नहीं होते, शीघ्र दुर्गन्धित नहीं होते हैं। ऐसे बालाग्र भरे उस पल्य मे से सौ-सौ वर्ष मे एक-एक बालाग्र निकाला जाये, जितने समय में वह पल्य खाली हो जाये वह पल्योपम है। दस करोड़ पल्योपम को दस करोड पल्योपम से गुणा करने पर एक पल्योपम होता है। अर्थात्
दस कोटाकोटि पल्योपम का एक सागरोपम होता है। चार कोटाकोटि सागरोपम का सुषमा-सुषमा नामक पहला आरक होता है। तीन कोटाकोटि सागरोपम का एक सुषमा नामक दूसरा आरा होता है। दो कोटाकोटि सागरोपम का सुषमा-दुषमा नामक तीसरा आरा होता है।
बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम का दुषमा-सुषमा नामक चौथा आरा होता है।
इक्कीस हजार वर्ष का दुषमा नामक पॉचवॉ आरा होता है। इक्कीस हजार वर्ष का दुषमा-दुषमा नामक छठा आरा होता है।
इन छ आरो के समुदाय को अवसर्पिणी काल कहते हैं। उत्सर्पिणी काल-चक्र मे आरो की व्यवस्था इस प्रकार होती है -
इक्कीस हजार वर्ष का दुषमा-दुषम नामक प्रथम आरक होता है। इक्कीस हजार वर्ष का दुषम नामक द्वितीय आरक होता है।
वयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम का दुषम सुषम नामक । तृतीय आरक होता है।